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यही कांटा था, जो अमरकान्त के हृदय में चुभ रहा था।

सुखदा के पास जवाब तैयार था--तुम्हें भी तो अपना सिद्धान्त अपने बाप से ज्यादा प्यारा है ? उन्हें तो मैं कुछ नहीं कहती। अब साठ बरस को उम्र में उन्हें उपदेश नहीं दिया जा सकता। कम-से-कम तुमको यह अधिकार नहीं है। तुम्हें धन काटता हो; लेकिन मनस्वी, वीर पुरुषों ने सदैव लक्ष्मी की उपासना की। संसार को पुरुषार्थियों ने ही भोगा है और हमेशा भोगेंगे। त्याग गृहस्थों के लिए नहीं संन्यासियों के लिए है। अगर तुम्हें त्यागव्रत लेना था तो विवाह करने की ज़रूरत न थी, सिर मुड़ाकर किसी साधु-सन्त के चेले बन जाते। फिर मैं तमसे झगड़ने न आती। अब ओखली में सिर डालकर तुम मूसलों से नहीं बच सकते। गृहस्थी के चरखें में पड़कर बड़े-बड़ों की नीति भी स्खलित हो जाती है। कृष्ण और अर्जुन तक को एक नये तर्क की शरण लेनी पड़ी।

अमरकान्त ने इस ज्ञानोपदेश का जवाब देने की जरूरत न समझी। ऐसी दलीलों पर गंभीर विचार किया ही न जा सकता था। बोला--तो तुम्हारी सलाह है कि सन्यासी हो जाऊँ ?

सुखदा चिढ़ गयी। अपनी दलीलों का यह अनादर न सह सकी। बोली--कायरों को इसके सिवा और सूझ ही क्या सकता है। धन कमाना आसान नहीं है। व्यवसायियों को जितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, वह अगर संन्यासियों को झेलनी पड़ें, तो सारा संन्यास भूल जाय। किसी भले आदमी के द्वार पर जाकर पड़ रहने के लिए बल, बुद्धि, विद्या, साहस किसी की जरूरत नहीं। धनोपार्जन के लिए खून जलाना पड़ता है, मांस सुखाना पड़ता है। सहज काम नहीं है। धन कहीं पड़ा नहीं है, कि जो चाहे बटोर लाये।

अमरकान्त ने उसी विनोद भाव से कहा--मैं तो दादा को गद्दी पर बैठे रहने के सिवाय और कुछ करते नहीं देखता। और भी जो बड़े-बड़े सेठ-साहूकार हैं, उन्हें भी फूलकर कुप्पा होते ही देखा है। रक्त और मांस तो मजदूर ही जलाते हैं। जिसे देखो कंकाल बना हुआ है।

सुखदा ने कुछ जवाब न दिया। ऐसी मोटी अक्ल के आदमी से ज्यादा बकवास करना व्यर्थ था।

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कर्मभूमि