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पड़ेगा। मैं खुद पैदा कर सकती हूँ। थोड़ा मिलेगा, थोड़े में गुजारा कर लेंगे ; बहुत मिलेगा, तो पूछना ही क्या। जब एक दिन हमें अपनी झोपड़ी बनानी है तो क्यों न अभी से हाथ लगा दें। तुम कुएँ से पानी लाना, मैं चौका-बरतन कर लूंगी। जो आदमी एक महल में रहता है, वह एक कोठरी में भी रह सकता है। फिर कोई धौंस तो न जमा सकेगा !'

अमरकान्त पराभूत हो गया। उसे अपने विषय में तो कोई चिन्ता न थी; लेकिन सुखदा के साथ वह यह अत्याचार कैसे कर सकता था ?

खिसियाकर बोला--वह समय अभी नहीं आया है सुखदा !

सुखदा सतेज होकर बोली--डरते होगे कि यह अपने भाग्य को रोयेगी, क्यों ?

अमरकान्त झेंपकर बोले--बात नहीं है सुखदा !

'क्यों झूठ बोलते हो! तुम्हारे मन में यही भाव है और इससे बड़ा अन्याय तुम मेरे साथ नहीं कर सकते। कष्ट सहने में, या सिद्धांत की रक्षा के लिए स्त्रियां कभी मरदों से पीछे नहीं रहीं। तुम मुझे मजबूर कर रहे हो कि और कुछ नहीं तो इस लांछन से बचने के लिये मैं दादाजी से अलग रहने की आज्ञा मांगूँ। बोलो ?'

अमर लज्जित होकर बोला--मुझे क्षमा कर दो सुखदा ! मैं वादा करता हूँ कि दादाजी जैसा कहेंगे, वैसा ही करूंगा।

'इसलिए कि तुम्हें मेरे विषय में सन्देह है ?'

'नहीं केवल इसलिए कि मुझमें अभी उतना बल नहीं है।'

इसी समय नैना आकर दोनों को पकौड़ियां खिलाने के लिए घसीट ले गयी। सुखदा प्रसन्न थी : उसने आज बड़ी विजय पायी थी। अमरकान्त झेंपा हुआ था। उसके आदर्श और धर्म की आज परीक्षा हो गई थी और उसे अपनी दुर्बलता का ज्ञान हो गया था। ऊँट पहाड़ के नीचे आकर अपनी ऊँचाई देख चुका था।


जीवन में कुछ सार है, अमरकान्त को इसका अनुभव हो रहा था। वह एक शब्द भी मुँह से ऐसा नहीं निकालना चाहता, जिससे सुखदा को

कर्मभूमि
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