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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/५५

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दुर्गा-पाठ बैठा दीजिए। इस महल्ले में एक दाई रहती है ; उसे अभी रख लिया जाय, तो अच्छा हो। बिटिया अभी बहुत-सी बातें नहीं समझती। दाई उसे सँभालती रहेगी।

लालाजी ने इस प्रस्ताव को हर्ष से स्वीकार कर लिया। यहाँ से जब वह घर लौटे तो देखा--दूकान पर दो गोरे और एक मेम बैठे हैं और अमरकान्त उनसे बातें कर रहा है। कभी-कभी नीचे दरजे के गोरे यहाँ अपनी घड़ियाँ या कोई और चीज बेचने के लिए आ जाते थे। लालाजी उन्हें खूब ठगते थे। वह जानते थे कि ये लोग बदनामी के भय से किसी दूसरी दूकान पर न जायेंगे। उन्होंने जाते-ही-जाते अमरकान्त को हटा दिया और खुद पटाने लगे। अमरकान्त स्पष्टवादी था और यह स्पष्टवादिता का अवसर न था। मेमसाहब को सलाम करके पूछा--कहिए मेम साहब, क्या हुक्म है।

तीनों शराब के नशे में चूर थे। मेम साहब ने सोने की एक जंजीर निकालकर कहा--सेठजी, हम इसको बेचना चाहता है। बाबा बहुत बीमार है। उसका दवाई में बहुत खरच हो गया।

समरकान्त ने जंजीर लेकर देखा और हाथ में तौलते हुए बोले--इसका सोना तो अच्छा नहीं है मेम साहब ! आपने कहाँ बनवाया था?

मेम हँसकर बोली--ओ ! तुम बराबर यही बात करता है। सोना बहुत अच्छा है। अंग्रेजी दूकान का बना हुआ है। आप इसको ले लें।

समरकान्त ने अनिच्छा का भाव दिखाते हुए कहा--बड़ी-बड़ी दूकानें ही तो गाहकों को उलटे छूरे से मूंड़ती हैं। जो कपड़ा यहाँ बाजार में छ: आने मिलेगा, वही अँगरेजी दुकान पर बारह आने गज से नीचे न मिलेगा। मैं तो इसके दाम दस रुपया तोले से बेशी नहीं दे सकता।

'और कुछ नहीं देगा?'

'और कुछ नहीं। यह भी आपकी खातिर है।'

यह गोरे उस श्रेणी के थे, जो अपनी आत्मा को शराब और जुए के हाथों बेच देते हैं, बेटिकट फर्स्ट क्लास में सफर करते हैं, होटल वालों को धोखा देकर उड़ जाते है और जब कुछ बस नहीं चलता, तो बिगड़े हुए शरीफ बनकर भीख माँगते हैं। तीनों ने आपस में सलाह की और जंजीर बेच डाली। रुपये

कर्मभूमि
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