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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/५६

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लेकर दुकान से उतरे और ताँगे पर बैठे ही थे कि एक भिखारिन ताँगे के पास आकर खड़ी हो गयी। वह तीनों रुपये पाने की खुशी में भूले हुए थे कि सहसा उस भिखारिन ने छुरी निकालकर एक गोरे पर वार किया। छुरी उसके मुंह पर आ रही थी, उसने घबड़ाकर मुंह पीछे हटाया, तो छाती में चुभ गयी। वह तो ताँगे पर ही हाय-हाय करने लगा। शेष दोनों गोरे ताँगे से उतर पड़े और दुकान पर आकर प्राण रक्षा करना चाहते थे कि भिखारिन ने दूसरे गोरे पर वार कर दिया। छुरी उसकी पसली में पहुँच गयी। दूकान पर चढ़ने न पाया था, धड़ाम से गिर पड़ा। भिखारिन लपककर दुकान पर चढ़ गयी और मेम पर झपटी कि अमरकान्त हाँ हाँ करके उसकी छरी छीन लेने को बढ़ा। भिखारिन ने उसे देखकर छुरी फेंक दी और दुकान के नीचे कूदकर खड़ी हो गयी। सारे बाजार में हलचल पड़ गयी--एक गोरे ने कई आदमियों को मार डाला है, लाला समरकान्त मार डाले गये, अमरकान्त को भी चोट आयी है। ऐसी दशा में किसे अपनी जान भारी थी, जो वहाँ आता। लोग दुकानें बन्द करके भागने लगे।

दोनों गोरे जमीन पर पड़े तड़प रहे थे। ऊपर मेम सहसी हुई खड़ी थी और लाला समरकान्त, अमरकान्त का हाथ पकड़कर अन्दर घसीट ले जाने की चेष्टा कर रहे थे। भिखारिन भी सिर झुकाये जड़बत खड़ी थी--ऐसी भोली-भाली जैसे कुछ किया ही नहीं है।

वह भाग सकती थी, कोई उसका पीछा करने का साहस न करता; पर भागी नहीं। वह आत्मघात कर सकती थी। उसकी छुरी अब भी जमीन पर पड़ी हुई थी पर उसने आत्मघात भी न किया। वह तो इस तरह खड़ी थी, मानो उसे यह सारा दृश्य देखकर विस्मय हो रहा हो।

सामने के कई दूकानदार जमा हो गये। पुलिस के दो जवान भी आ पहुँचे। चारों तरफ से आवाज आने लगी--यही औरत है ! यही औरत है !

पुलिसवालों ने उसे पकड़ लिया।

एक दस मिनट में सारा शहर और सारे अधिकारी वहाँ आकर जमा हो गये। सब तरफ लाल पगड़ियाँ दीख पड़ती थीं। सिविल सर्जन ने आकर आहतों को उठवाया और अस्पताल ले चले। इधर तहकीकात होने लगी। भिखारिन ने अपना अपराध स्वीकार किया।

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कर्मभूमि