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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/५७

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पुलिस के सुपरिन्टेन्डेंट ने पूछा--तेरी इन आदमियों से कोई अदावत थी?---भिखारिन ने कोई जवाब न दिया।

सैकड़ों आवाजें आयीं--बोलती क्यों नहीं? हत्यारिनी!

भिखारिनी ने दृढ़ता से कहा--मैं हत्यारिनी नहीं हूँ।

'इन साहबों को तूने नहीं मारा ?'

'हाँ, मैने मारा।'

'तो तू हत्यारिनी कैसे नहीं है ?'

मैं हत्यारिनी नहीं हूँ। आज से छः महीने पहले ऐसे ही तीन आदमियों ने मेरी आवरू बिगाड़ी थी। मैं फिर घर नहीं गयी। किसी को अपना मुंह नहीं दिखाया। मुझे होश नहीं कि मैं कहाँ-कहाँ फिरी, कैसे रही, क्या-क्या किया। इस वक्त भी मुझे होश तब आया जब मैं इन दोनों गोरों को घायल कर चकी थी। तब मुझे मालूम हआ कि मैंने क्या किया। मैं बहत गरीब हूँ। मैं नहीं कह सकती, मुझे छुरी किसने दी, कहाँ से मिली, और मुझमें इतनी हिम्मत कहाँ से आयी। मैं यह इसलिए नहीं कह रही हूँ, कि मैं फाँसी से डरती हूँ। मैं तो भगवान् से मनाती हूँ कि जितनी जल्द हो सके, मुझे संसार से उठा लो! जब आबरू लुट गयी, तो जीकर क्या करूँगी।'

इस कथन ने जनता की मनोवृत्ति बदल दी। पुलिस ने जिन जिन लोगों के बयान लिये, सबने यही कहा--यह पगली है । इधर-उधर मारी-मारी फिरती थी। खाने को दिया जाता था, तो कुत्तों के आगे डाल देती थी। पैसे दिये जाते थे, तो फेंक देती थी।

एक तांगेवाले ने कहा--यह बीच सड़क पर बैठी हुई थी। कितनी ही घण्टी बजाई, पर रास्ते से हटी नहीं। मजबूर होकर पटरी से तांगा निकल गया।

एक पानवाले ने कहा--एक दिन मेरी दूकान पर आकर खड़ी हो गयी। मैने एक बीड़ा दिया। उसे जमीन पर डालकर पैरों से कुचलने लगी, फिर गाती हुई चली गयी।

अमरकान्त का बयान भी हुआ। लालाजी तो चाहते थे कि इस झंझट में न पड़ें, पर अमरकान्त ऐसा उत्तेजित हो रहा था,

कर्मभूमि
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