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कि उन्हें दुबारा कुछ कहने का हौसला न हुआ। अमर ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। रंग को चोखा करने के लिए दो-चार बातें अपनी तरफ से जोड़ दीं।

पुलिस के अफसर ने पूछा--तुम कह सकते हो, यह औरत पागल है ?

अमरकान्त बोला--जी हाँ, बिल्कुल पागल। बीसियों ही बार उसे अकेले हँसते या रोते देखा। कोई कुछ पूछता था, तो भाग जाती थी।

यह सब झूठ था। उस दिन के बाद आज यह औरत पहली बार यहाँ उसे नज़र आयी थी। संभव है, उसने कभी इधर-उधर देखा भी हो, पर वह उसे पहचान न सका था।

जब पुलिस पगली को लेकर चली, तो दो हजार आदमी थाने तक उसके साथ गये। अब वह जनता की दृष्टि में साधारण स्त्री न थी, देवी के पद पर पहुँच गयी थी। किसी दैवी शक्ति के बगैर उसमें इतना साहस कहाँ से आ जाता। रात-भर शहर के अन्य भागों के लोग आ-आकर घटना स्थल का मुआइना करते रहे। दो एक आदमी उस काण्ड की व्याख्या करने में हार्दिक आनन्द प्राप्त कर रहे थे। यों आकर ताँगे के पास खड़ी हो गयी, यों छुरी निकाली, यो झपटी, यों दोनों दुकान पर चढ़े, यों दूसरे गोरे पर टूटी। भैया अमरकान्त सामने न आ जायँ, तो मेम का काम भी तमाम कर देती। उस समय उसकी आँखों से लाल अंगारे निकल रहे थे। मुख पर ऐसा तेज था, मानों दीपक हो।

अमरकान्त अन्दर गया, तो देखा नैना भावज का हाथ पकड़े सहमी खड़ी है और सुखदा राजसी करुणा से आन्दोलित हो, सजल-नेत्र चारपाई पर बैठी हुई है। अमर को देखते ही वह खड़ी हो गई और बोली--यह वही औरत थी न?

'हाँ वही मालूम होती है।'

'तो अब फाँसी पा जायगी।'

'शायद बच जाय, आशा कम है।'

'अगर इसको फाँसी हो गयी तो मैं समझूँगी, संसार से न्याय उठ गया। उसने कोई अपराध नहीं किया। जिन दुष्टों ने उस पर ऐसा अत्याचार किया उन्हें यहीं दण्ड मिलना चाहिए था। मैं अगर न्याय के पद पर होती, तो उसे

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कर्मभूमि