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शान्ति०--मुक़दमा खतम हो जाय, तो एक-एक की खबर लूँगा।

इतने में लारी आती दिखाई दी। अमरकान्त वकीलों को इत्तला करने दौड़ा। दर्शक चारों तरफ से दौड़-दौड़कर अदालत के कमरे में आ पहुँचे। भिखारिन लारी से उतरी और कठघरे में सामने आकर खड़ी हो गयी। उसके आते ही हजारों आँखें उसकी ओर उठ गयीं; पर उन आँखों में एक भी ऐसी न थी, जिसमें श्रद्धा न भरी हो। उसके पीले, मुरझाये हुए मुख पर आत्मगौरव की ऐसी कान्ति थी, जो कुत्सित दृष्टि के उठने के पहले ही निराश और पराभूत करके उसमें श्रद्धा को आरोपित कर देती थी।

जज साहब साँवले रंग के, नाटे, चकले, बृहदाकार मनुष्य थे। उनकी लम्बी नाक और छोटी-छोटी आँखें अनायास ही मुसकराती मालूम देती थीं। पहले यह महाशय राष्ट्र के उत्साही सेवक थे और कांग्रेस के किसी प्रान्तीय जलसे के सभापति हो चुके थे; पर इधर तीन साल से वह जज हो गये थे। अतएव अब राष्ट्रीय आन्दोलन से पृथक रहते थे, पर जाननेवाले जानते थे कि वह अब भी पत्रों में नाम बदल कर अपने राष्ट्रीय विचारों का प्रतिपादन करते रहते थे। उनके विषय में कोई शत्रु भी यह कहने का साहस नहीं कर सकता था कि वह किसी दबाव या भय से न्याय-पथ से जौ-भर भी विचलित हो सकते हैं। उनकी यही न्याय-परता इस समय भिखारिन की रिहाई में बाधक हो रही थी।

जज साहब ने पूछा--तुम्हारा नाम ?

भिखारिन ने कहा--भिखारिन !

'तुम्हारे पिता का नाम ?'

'पिता का नाम बताकर उन्हें कलंकित नहीं करना चाहती।'

'घर कहाँ है ?'

भिखारिन ने दुःखी कण्ट से कहा--पूछकर क्या कीजिएगा। आपको इससे क्या काम है।

'तुम्हारे ऊपर यह अभियोग है कि तुमने ३ तारीख को दो अँगरेजों को छुरी से ऐसा जख्मी किया कि दोनों उसी दिन मर गये। तुम्हें यह अपराध स्वीकार है ?'

कर्मभूमि
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