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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/६५

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माला भी डाल दें, मुझपर अशर्फ़ियों की बरखा भी की जाय, तो क्या यहां से मैं अपने घर जाऊँगी ? मैं विवाहिता हूँ। मेरा एक छोटा-सा बच्चा है। क्या मैं उस बच्चे को अपना कह सकती हूँ ? क्या अपने पति को अपना कह सकती हूँ ? कभी नहीं। बच्चा मुझे देखकर मेरी गोद के लिये हाथ फैलायेगा; पर मैं उनके हाथों को नीचा कर दूंगो और आँखों में आँसू भरे मुँह फेरकर चली जाऊँगी। पति मुझे क्षमा भी कर दे। मैंने उसके साथ कोई विश्वासघात नहीं किया है। मेरा मन अब भी उसके चरणों से लिपट जाना चाहता है; लेकिन मैं उसके सामने ताक नहीं सकती। वह मुझे खींच भी ले जाय, तब भी मैं उस घर में पांव न रखूगी। इस विचार से मैं अपने मन को सन्तोष नहीं दे सकती कि मेरे मन में पाप न था। इस तरह तो अपने मन को वह समझाये, जिसे जीने की लालसा हो। मेरे हृदय से यह बात नहीं जा सकती कि तू अपवित्र है, अछूत है। कोई कुछ कहे, कोई कुछ सुने। आदमी को जीवन क्यों प्यारा होता है ? इसलिए नहीं कि वह सुख भोगता है। जो दुःख भोगा करते हैं और रोटियों के लिए तरसते हैं, उन्हें जीवन कुछ कम प्यारा नहीं होता। हमें जीवन इसलिए प्यारा होता है कि हमें अपनों का प्रेम और दूसरों का आदर मिलता है। ज़ब इन दो में से एक के भी मिलने की आशा नहीं, तो जीना वृथा है। अपने मुझसे अब भी प्रेम करें; लेकिन यह दया होगी, प्रेम नहीं। दूसरे अब भी मेरा आदर करें; लेकिन वह भी दया होगी, आदर नहीं। वह आदर और प्रेम अब मुझे मरकर ही मिल सकता है। जीवन में तो मेरे लिए निन्दा और बहिष्कार के सिवा और कुछ नहीं है। यहां मेरी जितनी बहनें और जितने भाई हैं, उन सबसे मैं यही भिक्षा मांगती हैं, कि उस समाज के उद्धार के लिए भगवान से प्रार्थना करें, जिसमें ऐसे नर-पिशाच उत्पन्न होते हैं।

भिखारिन का बयान समाप्त हो गया। अदालत के उस बड़े कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था। केवल दो-चार महिलाओं की सिसकियों की आवाज सुनायी देती थी। महिलाओं के मुख गर्व से चमक रहे थे। पुरुषों के मुख लज्जा से मलिन थे। अमरकान्त सोच रहा था, गोरों का ऐसा दुस्साहस इसीलिए तो हुआ कि वह अपने को इस देश का राजा समझते हैं। शान्तिकुमार ने मन ही मन एक व्याख्यान की रचना कर डाली थी जिसका विषय

कर्मभूमि
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