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था--'स्त्रियों पर पुरुषों का अत्याचार।' सूखदा सोच रही थी--यह छुट जाती तो मैं इसे अपने घर में रखती और इसकी सेवा करती। रेणुका उसके नाम पर एक स्त्री-औषधालय बनवाने की कल्पना कर रही थी।

सुखदा के समीप ही जज साहब की धर्मपत्नी बैठी हुई थीं। वह बड़ी देर से इस मुक़दमे के सम्बन्ध में कुछ बातचीत करने को उत्सुक हो रही थीं, पर अपने समीप बैठी हुई स्त्रियों की अविश्वास-पूर्ण दृष्टि देखकर--जिससे वे उन्हें देख रही थीं उन्हें मुंह खोलने का साहस न होता था।

अन्त को उनसे न रहा गया। सुखदा से बोलीं--यह स्त्री बिलकूल निरपराध है।

सुखदा ने कटाक्ष किया--जब जज साहब भी ऐसा समझें।

'मैं तो आज उनसे साफ़-साफ़ कह दूंगी, कि अगर तुमने इस औरत को सजा दी तो मैं समझूँगी, तुमने अपने प्रभुओं का मुंह देखा।'

सहसा जज साहब ने खड़े होकर पंचों को थोड़े शब्दों में इस मुक़दमे में अपनी सम्मति देने का आदेश दिया और खुद कुछ कागजों को उलटने-पलटने लगे। पंच लोग पीछेवाले कमरे में जाकर थोड़ी देर बातें करते रहे और लौटकर अपनी सम्मति दे दी। उनके विचार में अभियस्ता निरपराध थी। जज साहब जरा-सा मुसकराये और कल फैसला सुनाने का वादा करके उठ खड़े हुए।


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सारे शहर में कल के लिये दोनों तरह की तैयारियां होने लगीं--हाय-हाय की भी और वाह-वाह की भी। काली झण्डियाँ भी बनीं और फूलों की डालियां भी जमा की गयीं, पर आशावादी कम थे, निराशावादी ज्यादा। गोरों का खून हुआ है। जज ऐसे मामले में क्या इन्साफ़ करेगा, क्या बेधा हुआ है। शान्तिकुमार और सलीम तो खुल्लम खुल्ला कहते फिरते थे कि जज ने फांसी की सज़ा दे दी। कोई खबर लाता था--फौज की एक पूरी रेजीमेंट कल अदालत में तलब की गयी है। कोई फौज तक न जाकर, सशस्त्र पुलिस तक ही रह जाता है। अमरकान्त को फौज के बुलाये जाने का विश्वास था।

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कर्मभूमि