पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

की दूनी रकम जुर्माना दिया करता था। गोरे रंग का, लांबा, छरहरा, शौक़ीन युवक था जिसके प्राण खेल में बसते थे। नाम था मोहम्मद सलीम।

सलीम और अमरकान्त दोनों पास-पास बैठते थे। सलीम को हिसाब लगाने में, तर्जुमा करने में अमरकान्त से विशेष सहायता मिलती थी। उसकी कापी से नक़ल कर लिया करता था। इससे दोनों में दोस्ती हो गई थी। सलीम कवि था। अमरकान्त उसकी ग़ज़लें बड़े चाव से सुना करता था। मैत्री का यह एक और कारण था।

सलीम ने बाहर जाकर इधर-उधर निगाह दौड़ाई, अमरकान्त का कहीं पता न था। जरा और आगे बढ़े, तो देखा, वह एक वृक्ष की आड़ में खड़ा है। पुकारा—अमरकान्त! ओ बुद्धूलाल! चलो फ़ीस जमा करो, पण्डितजी बिगड़ रहे हैं।

अमरकान्त ने अचकन के दामन से आँखें पोंछ लीं, और सलीम की तरफ़ आता हुआ बोला——क्या मेरा नम्बर आ गया?

सलीम ने उसके मुँह की तरफ़ देखा, तो आँखें लाल थीं। वह अपने जीवन में शायद ही कभी रोया हो। चौंककर बोला——अरे, तुम तो रो रहे हो! क्या बात है?

अमरकान्त साँवले रंग का, छोटा-सा दुबला-पतला कुमार था। अवस्था बीस की हो गई थी; पर अभी मसें भी न भीगी थीं। चौदह-पंद्रह साल का किशोर-सा लगता था। उसके मुख पर एक वेदनामय दृढ़ता, जो निराशा से बहुत कुछ मिलती-जुलती थी, अंकित हो रही थी, मानो संसार में उसका कोई नहीं है। इसके साथ ही उसकी मुद्रा पर कुछ ऐसी प्रतिभा, कुछ ऐसी मनस्विता थी, कि एक बार उसे देखकर फिर भूल जाना कठिन था।

उसने मुस्कराकर कहा—कुछ नहीं जी, रोता कौन है!

'आप रोते हैं, और कौन रोता है। सच बताओ क्या हुआ है?'

अमरकान्त की आँखें फिर भर आयीं। लाख यत्न करने पर भी आँसू न रूक सके। सलीम समझ गया। उसका हाथ पकड़कर बोला—क्या फ़ीस के लिए रो रहे हो? भले आदमी, मुझसे क्यों न कह दिया। तुम मुझे भी ग़ैर समझते हो? क़सम खुदा की, बड़े नालायक आदमी हो तुम। ऐसे आदमी को गोली मार देनी चाहिए! दोस्त से भी ग़ैरियत! चलो क्लास

कर्मभूमि