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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/७१

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अमर ने दीन आग्रह के साथ कहा--आप चलें मैं जरा सिविल सर्जन के पास होता आऊँ। बुलानाले पर लाला समरकान्त का मकान ....

'हम जानते हैं !'

मेम साहब तो उधर चली, अमरकान्त सिविल सर्जन को बुलाने चला। ग्यारह बज गये थे। सड़कों पर भी सन्नाटा था। और पूरे तीन मील की मंजिल थी। सिविल सर्जन छावनी में रहता था। वहां पहुंचते-पहुंचते बारह का अमल हो आया : सदर फाटक खुलवाने, फिर साहब को इत्तिला कराने में एक घंटे से ज्यादा लग गया। साहब उठे तो; पर जामे से बाहर। गरजते हुए बोले--हम इस वक्त नहीं जा सकता।

अमर ने निश्शंक होकर कहा--आप अपनी फीस ही तो लेंगे?

'हमारा रात का फीस १०० ) है।'

'कोई हरज नहीं है।'

'तुम फीस लाया है ?'

अमर ने डांट बताई.---आप हरेक से पेशगी फीस नहीं लेते। लाला समरकान्त उन आदमियों में नहीं हैं जिनपर १०० ) का विश्वास न किया जा सके। वह इस शहर के सब से बड़े साहूकार हैं। मैं उनका लड़का हूँ।

साहब कुछ ठंडे पड़े। अमर ने उनको सारी कैफियत सुनाई, तो चलने पर तैयार हो गये। अमर ने साइकिल वहीं छोड़ी और साहब के मोटर में जा बैठा। आध घंटे में मोटर बुलानाले जा पहुंची। अमरकान्त को कुछ दूर से शहनाई की आवाज सुनाई दी। बन्दूकें छूट रही थीं। उसका हृदय आनन्द से फूल उठा।

द्वार पर मोटर रुकी, तो लाला समरकान्त ने डाक्टर को सलाम किया और बोले--हुजूर के इकबाल से सब चैन-चान है। पोते ने जन्म लिया है।

डाक्टर और लेडी हूपर में कुछ बातें हुई, डाक्टर साहब ने फीस ली और चल दिये।

उनके जाने के बाद लाला जी ने अमरकान्त को आड़े हाथों लिया--मुफ्त में १०० ) की चपत पड़ी।

आमरकान्त ने झल्लाकर कहा--मुझसे रुपये ले लीजियेगा। आदमी से भूल हो ही जाती है। ऐसे अवसर पर मैं रुपये का मोह नहीं देखता।

कर्मभूमि
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