तारिकाओं में, उसी शिशु की छवि थी, उसी का माधुर्य था, उसी का नृत्य था।
सिल्लो आकर रोने लगी। अमर ने पूछा--तुझे क्या हुआ है ? क्यों रोती है?
सिल्लो बोली--मेम साहब ने मुझे भैया को नहीं देखने दिया, दुत्कार दिया। क्या मैं बच्चे को नजर लगा देती ? मेरे बच्चे थे, मैंने भी बच्चे पाले हैं, जरा देख लेती तो क्या होता !
अमर ने हँसकर कहा--तू कितनी पागल है सिल्लो--उसने इसलिये मना किया होगा कि बच्चे को हवा न लग जाय। इन अंग्रेज डाक्टरनियों के नखरे भी तो निराले होते हैं। समझती-समझाती नहीं, तरह-तरह के नखरे बधारती हैं, लेकिन उनका राज तो आज ही के दिन है न ? फिर तो अकेली दायी रह जायगी। तू ही तो बच्चे को पालेगी। दूसरा और कौन पालने वाला बैठा हुआ है।
सिल्लो की आंसू--भरी आंखें मुसकरा पड़ीं। बोली-–मैंने दूर से देख लिया। बिलकुल तुम को पड़ा है। रंग बहूजी का है। मैं कण्ठी ले लूँगी।
दो बज रहे थे। उसी वक्त लाला समरकान्त ने अमर को बुलाया और बोले--नींद तो अब क्या आयेगी। बैठकर कल के उत्सव का एक तखमीना बना लो। तुम्हारे जन्म में तो कारबार फैला न था, नैना कन्या थी। ३५ वर्ष के बाद भगवान ने यह दिन दिखाया है। कुछ लोग नाच-मुजरे का विरोध करते हैं। मुझे तो इसमें कोई हानि नहीं दीखती। खुशी का यही अवसर है, चार भाई-बन्द, चार दोस्त आते हैं, गाना-बजाना सुनते हैं, प्रीति-भोज में शरीक होते हैं। यही जीवन के सुख हैं। और इस संसार में क्या रखा है।
अमर ने आपत्ति की--लेकिन रंडियों का नाच तो ऐसे शुभ अवसर पर कुछ शोभा नहीं देता !
लालाजी ने प्रतिवाद किया--तुम अपना विज्ञान यहां न घुसेड़ो। मैं तुमसे सलाह नहीं पूछ रहा हूँ। कोई प्रथा चलती हैं, तो उसका आधार भी होता है। श्रीरामचन्द्र के जन्मोत्सव में अप्सराओं का नाच हुआ था। हमारे समाज में इसे शुभ माना गया है।