अमर ने कहा--अँग्रेजों के समाज में तो जलसे नहीं होते।
लालाजी ने बिल्ली की तरह चूहे पर झपटकर कहा--अंग्रेजों के यहां रंडियां नहीं, घर की बहू-बेटियां नाचती हैं, जैसे हमारे चमारों में होता है। बहूबेटियों को नचाने से तो यह कहीं अच्छा है कि रडियां नाचें। कम-से-कम मैं और मेरी तरह के और बुड्ढे अपनी बहू-बेटियों को नचाना कभी पसन्द न करेंगे।
अमरकान्त को कोई जवाब न सूझा। सलीम और दूसरे दोस्त आयेंगे। खासी चहल-पहल रहेगी। उसने ज़िद भी की लो क्या नतीजा। लालाजी मानने के नहीं। फिर एक उसके करने से तो नाच का बहिष्कार हो नहीं जाता।
वह बैठकर तखमीना लिखने लगा।
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सलीम ने मामूल से कुछ पहले उठकर काले खां को बुलाया और रात का प्रस्ताव उसके सामने रखा। दो सौ रुपये की रकम कुछ कम नहीं होती! काले खां ने छाती ठोंककर कहा--भैया, एक-दो जूते की क्या बात है, कहो तो इजलास पर पचास गिनकर लगाऊँ। ६ महीने से बेसी तो होती नहीं, २००) बाल-बच्चों के खाने-पीने के लिए बहुत है।
सलीम ने सोचा अमरकान्त रुपये लिये आता होगा; पर आस बजे, नौ का अमल हुआ और अमर का कहीं पता नहीं। आया क्यों नहीं? कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया। ठीक है, रुपये का इन्तजाम कर रहा होगा। बाप तो न देंगे। सास से जाकर कहेगा, तब मिलेंगे। आखिर दस बज गये। अमरकान्त के पास चलने को तैयार हुआ कि प्रो० शान्तिकुमार आ पहुंचे। सलीम ने द्वार तक जाकर उनका स्वागत किया। डाक्टर शान्तिकुमार ने कुरसी पर लेटते हुए पंखा चलाने का इशारा करके कहा--तुमने कुछ सुना है, अमर के घर लड़का हुआ है। वह आज न जा सकेगा; उसकी सास भी वहीं हैं। समझ में नहीं आता, आज का इन्तजाम कैसे होगा ! उसके बगैर हम किसी तरह का डिमांस्ट्रेशन (प्रदर्शन) कर सकेंगे ? रेणुका देवी आ जाती, तो भी बहुत कुछ हो जाता ; पर उन्हें भी फुरसत नहीं है।