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में दुनिया की किसी क़ौम से पीछे नहीं हैं। उसी तरह, जैसे हम और तुम रात को चोरों के आ जाने पर पुलिस को नहीं पुकारते; बल्कि अपनी-अपनी लकड़ियाँ लेकर घरों से निकल पड़ते हैं।

सलीम ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा--मैं बोल न सकूँगा, लेकिन जाऊंगा जरूर।

सलीम ने मोटर मंगवाई और दोनों आदमी कचहरी चले। आज वहाँ और दिनों से कहीं ज्यादा भीड़ थी; पर जैसे बिना दूल्हा की बरात हो। वहाँ कोई शृंखला न थी। सौ-सौ पचास-पचास की टोलियाँ जगह-जगह खड़ी या बैठी शून्य दृष्टि से ताक रही थीं। कोई बोलने लगता था, तो सौ-दो-सौ आदमी इधर-उधर से आकर उसे घेर लेते थे। डाक्टर साहब को देखते ही हजारों आदमी उनकी तरफ दौड़े। डाक्टर साहब मुख्य कार्यकर्ताओं को आवश्यक बातें समझा कर वकालतखाने की तरफ चले, तो देखा लाला समरकान्त सबको निमन्त्रण-पत्र बाँट रहे हैं। वह उत्सव उस समय वहाँ सबसे आकर्षक विषय था। लोग बड़ी उत्सुकता से पूछ रहे थे, कौन-कौन सी तबायफे बुलाई गयी हैं ? भाँड़ भी है या नहीं ? मांसाहारियों के लिए भी कुछ प्रबन्ध है ? एक जगह दस-बारह सज्जन नाच पर वाद-विवाद कर रहे थे। डाक्टर साहब को देखते ही एक महाशय ने पूछा--कहिए, उत्सव में आयेंगे, या आपको आपत्ति है ?

डाक्टर शान्तिकुमार ने उपेक्षा-भाव से कहा--मेरे पास इससे ज्यादा जरूरी काम है।

एक साहब ने पूछा--आखिर आपको नाच से क्यों एतराज़ है ?

डाक्टर ने अनिच्छा से कहा--इसलिए कि आप और हम नाचना ऐब समझते हैं। नाचना विलास की वस्तु नहीं,भक्ति और आध्यात्मिक आनन्द की वस्तु है; पर हमने इसे लज्जासद बना रखा है। देवियों को विलास और भोग की वस्तु बनाना अपनी माताओं और बहनों का अपमान करना है। हम सत्य से इतनी दूर हो गये है कि उसका यथार्थ रूप भी हमें नहीं दिखाई देता। नृत्य जैसे पवित्र...

सहसा एक युवक ने समीप आकर डाक्टर साहब को प्रणाम किया। लम्बा सा दुबला-पतला आदमी था, मुख सूखा हुआ, उदास; कपड़े मैले और

कर्मभूमि
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