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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/७९

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खड़ा रहता हूँ। किसी से कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती। आज मैंने समझा, अब उससे सदा के लिए नाता टूट रहा है; इसलिए बच्चे को लेता आया, कि इसको देखने की उसे लालसा न रह जाय। आप लोगों ने तो बहुत खरचबरच किया; पर भाग्य में जो लिखा था, वह कैसे टलता। आपसे यही कहना है, कि जज साहब फैसला सुना चुकें, तो एक छिन के लिए उससे मेरी भेंट करा दीजिएगा। मैं आपसे सत्य कहता हूँ बाबूजी, वह अगर बरी हो जाय तो मैं उसके चरण धो-धोकर पीऊँ और घर ले जाकर उसकी पूजा करूँ। मेरे भाई-बन्द अब भी नाक-भौं सिकोड़ेगे; पर जब आप लोग जैसे बड़े-बड़े आदमी मेरे पक्ष में हैं, तो मुझे बिरादरी की परवाह नहीं।

शान्तिकुमार ने पूछा -- जिस दिन उसका बयान हुआ, उस दिन तुम थे ?

युवक ने सजल-नेत्र होकर कहा--हाँ, बाबूजी, था। सबके पीछे द्वार पर खड़ा रो रहा था। यही जी में आता था, कि दौड़कर उसके चरणों से लिपट जाऊँ और कहूँ--मुन्नी, मैं तेरा सेवक हूँ, तू अब तक मेरी स्त्री थी, आज से मेरी देवी है। मुन्नी ने मेरे पुरुखों को तार दिया बाबूजी, और क्या कहूँ।

शान्तिकुमार ने फिर पूछा--मान लो, आज वह छूट जाय तो तुम उसे घर ले जाओगे?

युवक ने पुलकित कंठ से कहा--यह पूछने की बात नहीं है बाबूजी ! मैं उसे आँखों पर बैठा कर ले जाऊँगा और जब तक जिऊँगा उसका दास बना रहकर अपना जन्म सुफल करूँगा।

एक क्षण के बाद उसने बड़ी उत्सुकता से पूछा--क्या छूटने की कुछ आशा है बाबूजी ?

'औरों को तो नहीं है ; पर मुझे हैं।'

युवक डाक्टर साहब के चरणों पर गिरकर रोने लगा। चारो ओर निराशा की बातें सुनने के बाद आज उसने आशा का शब्द सुना है और यह निधि पाकर उसके हृदय की समस्त भावनाएँ मानो मंगल गान कर रही हैं। और हर्ष के अतिरेक में मनुष्य क्या आँसुओं को संयत रख सकता है ?

मोटर का हार्न सुनते ही दोनों ने कचहरी की तरफ देखा। जज साहब आ गये। जनता का वह अपार सागर चारों ओर से उमड़कर अदालत के सामने जा पहुँचा। फिर भिखारिन लाई गई। जनता ने उसे देखकर जय-

कर्मभूमि
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