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घोष किया। किसी-किसी ने पुष्प-वर्षा भी की। वकील, बैरिस्टर, पुलिस, कर्मचारी, अफसर सभी आकर यथास्थान बैठ गये।

सहसा जज साहब ने एक उड़ती हुई निगाह से जनता को देखा। चारों तरफ सन्नाटा हो गया। असंख्य आँखें जज साहब की ओर ताकने लगीं, मानो कह रही थीं--आप ही हमारे भाग्य-विधाता हैं।

जज साहब ने सन्दूक से टाइप किया हुआ फैसला निकाला और एक बार खाँसकर उसे पढ़ने लगे। जनता सिमटकर और समीप आ गयी। अधिकांश लोग फैसले का एक शब्द भी न समझते थे; पर कान सभी लगाये हुए थे। चावल और बताशों के साथ न जाने कब रुपये लूट में मिल जायें।

कोई पन्द्रह मिनट तक जज साहब फैसला पढ़ते रहे, और जनता चितामय प्रतीक्षा से तन्मय होकर सुनती रही।

अन्त में जज के मुख से निकला--'यह सिद्ध है कि मुन्नी ने हत्या की...' कितनों ही के दिल बैठ गये। एक दूसरे की ओर पराधीन नेत्रों से देखने लगे।

जज ने वाक्य की पूर्ति की--'लेकिन यह भी सिद्ध है, कि उसने यह हत्या मानसिक अस्थिरता की दशा में की--इसलिए मैं उसे मुक्त करता हूँ।'

वाक्य का अन्तिम शब्द आनन्द की उस तूफ़ानी उमंग में डूब गया। आनन्द महीनों चिन्ता के बन्धनों में पड़े रहने के बाद आज जो छूटा, तो छूटे हुए बछड़े की भांति कुलांचे मारने लगा। लोग मतवाले हो-होकर एक-दूसरे के गले मिलने लगे। घनिष्ट मित्रों में धौल-धप्पा होने लगा। कुष्ट लोगों ने अपनी-अपनी टोपियां उछाली। जो मसखरे थे, उन्हें जूते उछालने की सूझी। सहसा मुन्नी, डाक्टर शांतिकुमार के साथ, गम्भीर हास्य से अलंकृत बाहर निकली, मानो कोई रानी अपने मन्त्री के साथ आ रही है। जनता को वह सारी उद्दण्डता शान्त हो गई। रानी के सम्मुख बेअदबी कौन कर सकता है।

प्रोग्राम पहले ही निश्चित था। पुष्प वर्षा के पश्चात् मुन्नी के गले में जय-माल डालना था। यह गौरव जज-साहब की धर्म-पत्नी को प्राप्त हुआ, जो इस फैसले के बाद जनता की श्रद्धा-पात्री हो चकी थीं। फिर बैंड बजने

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कर्मभूमि