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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/८३

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मुझे स्टेशन पर पहुंचा दो। आख़िर मजबूर होकर डाक्टर साहब ने जनता को विदा किया और मुन्नी को मोटर पर बैठाया।

मुन्नी ने कहा--अब यहां से चलिए और किसी दूर के स्टेशन पर ले चलिए, जहां यह लोग एक भी न हों।

शान्तिकुमार ने इधर-उधर प्रतीक्षा की आंखों से देखकर कहा--इतनी जल्दी न करो बहन, तुम्हारा पति आता ही होगा। जब यह लोग चले जायेंगे, तब वह जरूर आयेगा।

मन्त्री ने अशान्त भाव से कहा--मैं उनसे मिलना नहीं चाहती बाबजी,कभी नहीं। उनके मेरे सामने आते ही मारे लज्जा के मेरे प्राण निकल जांयगे। मैं सच कहती हूँ मैं मर जाऊँगी। आप मुझे जल्दी से ले चलिए। अपने बालक को देखकर मेरे हृदय में मोह की ऐसी आंधी उठेगी, कि मेरा सारा विवेक और विचार उसमें तृण के समान उड़ जायगा। उस मोह में मैं भल जाऊँगी कि मेरा कलंक उसके जीवन का सर्वनाश कर देगा। मेरा मन न-जाने कैसा हो रहा है। आप मुझे जल्दी यहां से ले चलिए। मैं उस बालक को देखना नहीं चाहती, मेरा देखना उसका विनाश है।

शान्तिकुमार ने मोटर चला दी; पर दस ही बीस गज गये होंगे कि पीछे से मुन्नी का पति बालक को गोद में लिये दौड़ता और 'मोटर रोको ! मोटर रोको !'पुकारता चला आता था। मुन्नी की उस पर नजर पड़ी। उसने मोटर की खिड़की से सिर निकाल कर हाथ से मना करते हुए चिल्लाकर कहा--नहीं, नहीं, तुम मत आओ, मेरे पीछे मत आओ ! ईश्वर के लिए मत आओ।

फिर उसने दोनों बाहें फैला दी, मानों बालक को गोद में ले रही हो और मूर्छित होकर गिर पड़ी।

मोटर तेजी से चली जा रही थी, युवक ठाकुर बालक को लिये खड़ा रो रहा था और कई हजार स्त्री-पुरुष मोटर की तरफ ताक रहे थे।


१२

मुन्नी के बरी होने का समाचार आनन-फानन सारे शहर में फैल गया। इस फैसले की आशा बहुत कम आदमियों को थी। कोई कहता था--जज माहब की स्त्री ने पत्ति से लड़कर फैसला लिखाया। रूठकर मैके चली जा रही थी। स्त्री जब किसी बात पर अड़ जाय, तो पुरुष कैसे नहीं कर दे।

कर्मभूमि
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