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ऊँट के नन्हें से नकेल की भांति उसके जीवन का संचालन अपने हाथ में ले लिया था। मानों दीपक के सामने एक भुनगे ने आकर उसकी ज्योति को संकुचित कर दिया था।

तीन महीने बीत गये थे। सन्ध्या का समय था। बच्चा पलने में सो रहा था। सुखदा हाथ में पंखिया लिये एक मोढ़े पर बैठी हुई थी। कृशांगी गर्भिणी विकसित मातृत्व के तेज और शक्ति से जैसे खिल उठी थी। उसके माधुर्य में किशोरी की चपलता न थी, गर्भिणी की आलस्यमय कातरता न थी, माता का शान्त-लुप्त मंगलमय विलास था।

अमरकान्त कालेज से सीधे घर आया और बालक को सचिन्त नेत्रों से देखकर बोला--अब तो ज्वर नहीं है?

सुखदा ने धीरे से शिश के माथे पर हाथ रखकर कहा--नहीं, इस समय तो नहीं जान पड़ता। अभी गोद में सो गया था, तो मैंने लिटा दिया।

अमर न कुर्ते के बटन खोलते हुए कहा--मेरा तो आज वहां बिलकुल जी न लगा। मैं तो ईश्वर से यह प्रार्थना करता हूँ, कि मुझे संसार की और कोई वस्तु न चाहिए, यह बालक कुशल से रहे। देखो कैसे मुसकरा रहा है।

सुखदा ने मीठे तिरस्कार से कहा--तुम्हीं ने देख-देख नज़र लगा दी है।

'मेरा जी तो चाहता है, इसका चुम्बन ले लूँ।'

'नहीं-नहीं, सोते हुए बच्चों का चुम्बन न लेना चाहिए।'

सहसा किसी न ड्योढ़ी में आकर पुकारा। अमर ने जाकर देखा, तो बढ़िया पठानिन, लठिया के सहारे खड़ी है। बोला--आओ पठानिन तुमने तो सुना होगा। घर में बच्चा हुआ है।

पठानिन ने भीतर आकर कहा--अल्लाह करे जुग-जुग जिये और मेरी उम्र पाये। क्यों बेटा, सारे शहर का नेवता हुआ और हम पूछे तक न गये! क्या हमीं सबसे गैर थे? अल्लाह जानता है, जिस दिन यह खुशखबरी सुनी दिल से दुआ निकली कि अल्लाह इसे सलामत रखे ।

अमर ने लज्जित होकर कहा--हाँ, यह गलती मुझसे हुई पठानिन, मुआफ़ करो। आओ, बच्चे को देखो। आज इसे न जाने क्यों बुखार हो आया है।

कर्मभूमि
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