बुढ़िया दवे पांव आँगन से होती हुई सामने के बरामदं में पहुँची और बहू को दुआएँ देती हुई बच्चे को देखकर बोली--कुछ नहीं बेटा नजर का फ़साद है। मैं एक ताबीज़ दिये देती हूँ, अल्लाह चाहेगा, अभी हँसने खेलने लगेगा।
सुखदा ने मातृत्व-जनित नम्रता से बुढ़िया के पैरों को अंचल से स्पर्श किया और बोली--चार दिन भी अच्छी तरह नहीं रहता माता। घर में कोई बड़ी-बूढ़ी तो है नहीं। मैं क्या जानूं, कैसे क्या होता है। मेरी अम्मा है, पर वह रोज़ तो यहाँ नहीं आ सकतीं, न मैं हो रोज उनके पास जा सकती हूँ।
बुढ़िया ने फिर आशीर्वाद दिया और बोली--जब काम पड़े, मुझे बुला लिया करो बेटा, मैं और किस दिन के लिए हूँ। ज़रा तुम मेरे साथ चले चलो भैया, मैं ताबीज़ दे दूं।
बुढ़िया ने अपने सलूके की जेब से एक रेशमी कुरता और टोपी निकाली और शिशु के सिरहाने रखते हुए बोली--यह मेरे लाल की नजर है बेटा, इसे मंजूर करो। मैं और किस लायक हूँ। सकीना कई दिन से सीकर रखे हुए थी, चला नहीं जाता बेटा, आज बड़ी हिम्मत करके आई हूँ।
सुखदा के पास संबन्धियों से मिले हए कितने ही अच्छे-से-अच्छे कपड़े रखे हुए थे; पर इस सरल उपहार से उसे जो हार्दिक आनन्द प्राप्त हुआ, वह और किसी उपहार से न हुआ था, क्योंकि इसमें अमीरी का गर्व, दिखावे की इच्छा या प्रथा की शुष्कता न थी। इसमें एक शुभचिन्तक की आत्मा थी,प्रेम था और आशीर्वाद था।
बुढ़िया चलने लगी, तो सुखदा ने उसे एक पोटली में थोड़ी-सी मिठाई दी, पान खिलाये और बरोठे तक उसे विदा करने आई। अमरकान्त ने बाहर आकर एक इक्का किया और बुढ़िया के साथ बैठकर ताबीज लेने चला। गंडे ताबीज़ पर उसे विश्वास न था; पर वृद्धजनों के आशीर्वाद पर था, और उस ताबीज़ को वह केवल आशीर्वाद समझ रहा था।
रास्ते में बुढ़िया ने कहा--मैंने तुमसे कुछ कहा था, वह तुम भूल गये बेटा?
अमर सचमुच भूल गया था। शर्माता हुआ बोला--हाँ पठानिन, मुझे याद नहीं आया। मुआफ करो।