'वह' सकीना के बारे में !'
अमर ने माथा ठोंककर कहा--हाँ माता, मुझे बिल्कुल खयाल न रहा।
'तो अब खयाल रखो बेटा। मेरे और कौन बैठा हुआ है, जिससे कहूँ। इधर सकीना ने और कई रूमाल बनाये हैं। कई टोपियों के पल्ले भी काढ़े है। पर जब चीज बिकती ही नहीं, तो दिल नहीं बढ़ता।
'मझे वह सब चीज दे दो। मैं बिकवा दूंगा।'
'तुम्हें तकलीफ़ न होगी बेटा!'
'कोई तकलीफ़ नहीं। भला इसमें क्या तकलीफ!'
अमरकान्त को बुढ़िया घर में न ले गयी। इधर उसकी दशा और भी हीन हो गयी थी। रोटियों के भी लाले थे। घर की एक-एक अंगुल ज़मीन पर उसकी दरिद्रता अंकित हो रही थी। उस घर में अमर को क्या ले जाती! बुढ़ापा निस्संकोच होने पर भी कुछ परदा रखना चाहता है। वह उसे एक्के ही पर छोड़कर अन्दर गई, और थोड़ी देर में ताबीज़ और रूमालों को बकची लेकर आ पहुँची।
'ताबीज़ उसके गले में बांध देना। फिर कल मुझसे हाल कहना।'
'कल मरी तातील है। दो-चार दोस्तों से बातें करूँगा। शाम तक बन पड़ा, तो आऊंगा, नहीं फिर किसी दिन आ जाऊँगा।'
घर आकर अमर ने ताबीज बच्चे के गले में बांधी और दुकान पर जा बैठा। लालाजी ने पूछा--कहाँ गये थे? दुकान के वक्त कहीं मत जाया करो।
अमर ने क्षमा-प्रार्थना के भाव से कहा--आज पठानिन आ गयी थी। बच्चे के लिए एक ताबीज़ देने को कहा था वही लेने चला गया था।
'मैंने अभी देखा। अब तो अच्छा मालूम होता है। दुष्ट ने मेरी मूछे पकड़ कर खींच ली। मैंने भी कसकर एक घूंसा जमाया बचा को। हाँ, खूब याद आई। तुम बैठो, मै जरा शास्त्रीजी के पास से जन्म-पत्र लेता आऊँ। आज उन्होंने दने का वादा किया था।'
लालाजी चले गये, तो अमर फिर घर में जा पहुँचा और बच्चे को गोद में लेकर बोला--क्यों जी, तुम हमारे बाप की मूछें उखाड़ते हो ! खबरदार, जो फिर उनकी मूछें छुई, नहीं दाँत तोड़ दूंगा।