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पृष्ठ:कर्मभूमि.pdf/८९

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अमरकान्त ने अपनी सफ़ाई दी--कसम ले लो, जो मैंने उसकी तरफ़ देखा भी हो।

'मुझ कसम लेने की जरूरत ! तुम्हें वह मुबारक हो, मैं तुम्हारा रकीब नहीं बनना चाहता! रूमाल कितने दर्जन के हैं?'

'जो मुनासिब समझो दे दो।'

'इसकी कीमत बनानेवाले के ऊपर मुनहसर है। अगर उस हसीना ने बनाये हैं तो फ़ो रूमाल पांच रुपया। बुढ़िया या और किसी ने बनाये हैं, तो फी रूमाल चार आने।'

'तुम मज़ाक करते हो। तुम्हें लेना मंजूर नहीं।'

पहले यह बताओ, किसने बनाये हैं ?'

'बनाये तो हैं सकीना ही ने।'

'अच्छा, उसका नाम सकीना है। तो मैं फी रूमाल ५ ) दे दूंगा। शर्त यह कि तुम मुझे उसका घर दिखा दो।'

'हां शौक से; लेकिन तुमने कोई शरारत की, तो मैं तुम्हारा जानी दुश्मन हो जाऊँगा। अगर हमदर्द बनकर चलना चाहो, चलो। मैं चाहता हूँ, उसकी किसी भले आदमी से शादी हो जाय। है कोई तुम्हारे निगाह में ऐसा आदमी ? बस यही समझ लो, कि उसकी तक़दीर खुल जायगी। मैंने ऐसी हयादार और सलीकेमन्द लड़की नहीं देखी। मर्द के लुभाने के लिए औरत में जितनी बातें है, सब उसमें मौजूद हैं।

सलीम ने मुसकराकर कहा--मालूम होता है, तुम खुद उस पर रीझ चुके। हुस्न में तो वह तुम्हारी बीवी के तलवों के बराबर भी नहीं।

अमरकान्त ने आलोचक के भाव से कहा--औरत में रूप ही सबसे प्यारी चीज़ नहीं है। मैं तुमसे सच कहता हूँ, अगर मेरी शादी न हुई होती और मज़हब की रुकावट न होती, तो मैं उससे शादी करके अपने को भाग्यवान समझता।

'आखिर उसमें ऐसी बात क्या है, जिस पर तुम लट्टू हो ?'

'यह तो मैं खुद नहीं समझ रहा हूँ। शायद उसका भोलापन हो। तुम खुद क्यों नहीं कर लेते? मैं यह कह सकता हूँ कि उसके साथ तुम्हारी जिन्दगी जन्नत बन जायगी !'

कर्मभूमि
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