संध्या समय जब छुट्टी हुई और दोनों मित्र घर चले, तो अमरकान्त ने कहा——तुमने आज मुझ पर जो एहसान किया है......
सलीम ने उसके मुँह पर हाथ रखकर कहा——बस खबरदार, जो मुँह से एक आवाज भी निकाली। कभी भूलकर भी इसका जिक्र न करना।
'आज जलसे में आओगे?'
'मजमून क्या है, मुझे तो याद नहीं।'
'अजी वही पश्चिमी सभ्यता है।'
'तो मुझे दो चार पाइंट बता दो, नहीं मैं वहां कहूँगा क्या ?"
'बताना क्या है। पश्चिमी सभ्यता की बुराइयाँ हम सब जानते ही हैं। वही बयान कर देना।'
'तुम जानते होगे, मुझे तो एक भी नहीं मालूम।'
'एक तो यह तालीम ही है। जहाँ देखो वहीं दुकानदारी। अदालत की दुकान, इल्म की दुकान, सेहत की दुकान, इस एक पाइन्ट पर बहुत कुछ कहा जा सकता है।'
'अच्छी बात है, आऊँगा।'
अमरकान्त के पिता लाला समरकान्त बड़े उद्योगी पुरुष थे। उनके पिता केवल एक झोपड़ी छोड़कर मरे थे; मगर समरकान्त ने अपने बाहुबल से लाखों की सम्पत्ति जमा कर ली थी। पहले उनकी एक छोटी-सी हल्दी की आढ़त थी। हल्दी से गुड़ और चावल की बारी आयी। तीन बरस तक लगातार उनके व्यापार का क्षेत्र बढ़ता ही गया। अब आढ़ते बन्द कर दी थीं। केवल लेन-देन करते थे। जिसे कोई महाजन रुपये न दे, उसे वह बेखटके दे देते और वसूल भी कर लेते। उन्हें आश्चर्य होता था, किसी के रुपये मारे कैसे जाते हैं ऐसा मेहनती आदमी भी कम होगा। घड़ी रात रहे गंगास्नान करने चले जाते और सूर्योदय के पहले विश्वनाथजी के दर्शन करके दुकान पर पहुँच जाते। वहाँ मुनीम को जरूरी काम समझाकर तगादे पर निकल जाते और तीसरे पहर लौटते। भोजन करके फिर दुकान आ जाते