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सलीम ने सन्दिग्ध भाव से कहा--मैंने अपने दिल में जिस औरत का नक़शा खींच रखा है, वह कुछ और ही है। शायद वैसी औरत मेरी खयाली दुनिया के बाहर कहीं होगी भी नहीं। मेरी निगाह में कोई आदमी आयेगा, तो बताऊँगा। इस वक्त तो मैं ये रूमाल लिये लेता हूँ। पांच रुपये से कम क्या दूँ। सकीना कपड़े भी सी लेती होगी। मुझे उम्मीद है कि मेरे घर से उसे काफी मिल जायगा। तुम्हें भी एक दोस्ताना सलाह देता हूँ। मैं तुमसे बदगुमानी नहीं करता; लेकिन वहां बहुत आमदरपत न रखना, नहीं बदनाम हो जाओगे। तुम चाहे कम वदनाम हो, उस गरीब की तो जिन्दगी ही खराब हो जायगी। ऐसे भले आदमियों की कमी भी नहीं है, जो इस मुआमले को मज़हबी रंग देकर तुम्हारे पीछे पड़ जायेंगे। उसकी मदद तो कोई न करेगा; लेकिन तुम्हारे पर उँगली उठानेवाले बहुतेरे निकल आयेंगे।

अमरकान्त में उद्दण्डता न थी; पर इस समय वह झल्लाकर बोला--मझे ऐसे कमीने आदमियों की परवाह नहीं है। अपना दिल साफ रहे, तो किसी बात का गम नहीं।

सलीम ने ज़रा बुरा न मानकर कहा--तुम जरूरत से ज्यादा सीधे हो यार, मुझे खौफ है, किसी आफत में न फंस जाओ।

दूसरे दिन अमरकान्त ने दूकान बढ़ा कर जेब में पांच रुपये रखे, पठानिन के घर पहुंचा और आवाज़ दी। वह सोच रहा था--सकीना रुपये पाकर कितनी खुश होगी।

अन्दर से आवाज़ आई--कौन है?

अमरकान्त ने अपना नाम बतलाया।

द्वार तुरन्त खुल गये और अमरकान्त ने अन्दर कदम रखा; पर देखा तो चारो तरफ अंधेरा। पूछा--आज दिया नहीं जलाया, अम्मां?

सकीना बोली--अम्मा तो एक जगह सिलाई का काम लेने गयी हैं।

'अँधेरा क्यों है? चिराग़ में तेल नहीं है?'

सकीना धीरे से बोली--तेल तो है।

'फिर दिया क्यों नहीं जलाती, दियासलाई नहीं है ?'

'दियासलाई भी है।'

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कर्मभूमि