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'तो फिर चिराग जलाओ। कल जो मैं रूमाल ले गया था, वह पांच रुपये पर बिक गये हैं, ये रुपये ले लो। चटपट चिराग जलाओ।'

सकीना ने कोई जवाब न दिया। उसकी सिसकियों की आवाज सुनाई दी। अमर ने चौंककर पूछा--क्या बात है सकीना? तुम रो क्यों रही हो?

सकीना ने सिसकते हुए कहा--कुछ नहीं, आप जाइये। मैं अम्मा को रुपये दे दूंगी।

अमर ने व्याकुलता से कहा--जब तक तुम बता न दोगी, मैं न जाऊँगा। तेल न हो मैं ला दूं, दियासलाई न हो मैं ला दूं, कल एक लैम्प लेता आऊँगा । कुप्पी के सामने बैठकर काम करने से आंखें खराब हो जाती हैं। घर के आदमी से क्या परदा । मैं अगर तुम्हें गैर समझता, तो इस तरह बार-बार क्यों आता।

सकीना सामने के सायबान में जाकर बोली--मेरे कपड़े गीले हैं। आपकी आवाज सुनकर मैंने चिराग़ बुझा दिया।

'तो गीले कपड़े क्यों पहन रखे हैं?'

'कपड़े मैले हो गये थे। साबुन लगा कर रख दिये थे। अब और कुछ न पूछिये । कोई दूसरा होता तो मैं किवाड़ न खोलती।'

अमरकान्त का कलेजा मसोस उठा। उफ! इतनी घोर दरिद्रता! पहनने के कपड़े तक नहीं! अब उसे ज्ञात हुआ कि कल पठानिन ने जो रेशमी कुरता और टोपी उपहार में दी थी, उसके लिए कितना त्याग किया था। दो रुपये से कम क्या खर्च हुए होंगे। दो रुपये में दो पाजामे बन सकते थे। इन गरीब प्राणियों में कितनी उदारता है। जिसे ये अपना धर्म समझते है उसके लिए कितना कष्ट झेलने को तैयार रहते हैं।

उसने सकीना से कांपते हुए स्वर में कहा--तुम चिराग जला लो। मैं अभी आता हूँ।

गोबरधनसराय से चौक तक वह हवा के वेग से गया ; पर बाजार बन्द हो चुका था। अब क्या करे। सकीना अभी तक गीले कपड़े पहने बैठी होगी। आज इन सबों ने जल्द क्यों दूकान बन्द कर दी? वह यहां से उसी वेग के साथ घर पहुँचा। सुखदा के पास पचासों साड़ियां हैं। कई मामूली भी हैं। क्या वह उनमें से दो-एक साड़ियाँ न दे देगी ? मगर वह पूछेगी

कर्मभूमि
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