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--क्या करोगे, तो क्या जवाब देगा। साफ़-साफ़ कहने से तो वह शायद सन्देह करने लगे। नहीं, इस वक्त सफ़ाई देने का अवसर न था। सकीना गीले कपड़े पहने उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी। सुखदा नीचे थी। वह चुपके से ऊपर चला गया, गठरी खोली और उसमें से चार साड़ियां निकालकर दबे पांव चल दिया।

सुखदा ने पूछा--अब कहां जा रहे हो ? भोजन क्यों नहीं कर लेते।

अमर ने बरोठे से जवाब दिया--अभी आता हूँ।

कुछ दूर जाने पर उसने सोचा--कल कहीं सुखदा ने अपनी गठरी खोली और साड़ियाँ न मिली, तो बड़ी मुश्किल पड़ेगी। नौकरों के सिर जायगी। क्या वह उस वक्त यह कहने का साहस रखता था, कि वे साड़ियाँ मैने एक गरीब औरत को दे दी है। नहीं, वह यह नहीं कह सकता। तो क्या साड़ियाँ ले जाकर रख दे ? मगर वहाँ सकीने गीले कपड़े पहने बैठी होगी। फिर खयाल आया--सकीना इन साड़ियों को पाकर कितनी प्रसन्न होगी। इस खयाल ने उसे उन्मत्त कर दिया। जल्द-जल्द कदम बढ़ाता हुआ साकीना के घर जा पहुँचा।

सकीना ने उसकी आवाज़ सुनते ही द्वार खोल दिया। चिराग जल रहा था। सकीना ने इतनी देर में आग जलाकर कपड़े सुखा लिये थे और कुरता पाजामा पहन, ओढ़नी ओढ़े खड़ी थी। अमर ने साड़ियां खाट पर रख दीं और बोला--बाज़ार म तो न मिली, घर जाना पड़ा। हमदर्दो से परदा न रखना चाहिए।

सकीना ने साड़ियों को लेकर देखा और सकुचाती हुई बोली--बाबूजी, आप नाहक साड़ियाँ लाये। अम्मा देखेंगी, तो जल उठेगी। फिर शायद आपका यहाँ आना मुश्किल हो जाय। आपकी शराफत और हमदर्दी की जितनी तारीफ अम्मा करती थीं, उससे कहीं ज्यादा पाया। आप यहाँ ज्यादा आया भी न करें, नहीं खाम-खाह लोगों को शुबहा होगा। मेरी वजह से आपके ऊपर कोई शुबहा करे, यह मैं नहीं चाहती।

आवाज़ कितनी मीठी थी। भाव में कितनी नम्रता, कितना विश्वास; पर उसमें हर्ष न था, जिसकी अमर ने कल्पना की थी। अगर बुढ़िया इस सरल स्नेह को सन्देह की दृष्टि से देखें तो निश्चय ही उसका आना-जाना बन्द हो

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कर्मभूमि