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उसके जी में आया, साड़ियाँ उठाकर छाती से लगा ले। पर संयम ने हाथ न उठाने दिया। अमर ने साड़ियाँ उठा लीं और लड़खड़ाता हुआ द्वार से निकल गया, मानो अब गिरा, तब गिरा।


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अमरकान्त का मन फिर घर से उचाट होने लगा। सकीना उसकी आँखों में बसी हुई थी। सकीना के ये शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे--'...मेरे लिए दुनियाँ कुछ और हो गयी है। मैं अपने दिल में ऐसी ताक़त, ऐसी उमंग पाती हूँ...'इन शब्दों से उसकी पुरुष कल्पना को ऐसी आनन्दप्रद उत्तेजना मिलती थी, कि वह अपने को भूल जाता था। फिर दुकान से उसकी रुचि घटने लगी। रमणी की नम्रता और सलज्ज अनुरोध का स्वाद पा जाने के बाद सुखदा की प्रतिभा और गरिमा उसे बोझ-सी लगती थी। वहाँ हरे-भरे पत्तों में रूखी-सूखी सामग्री थी, यहाँ सोने-चाँदी के थालों में नाना व्यंजन सजे हुए थे। वहाँ सरल स्नेह था, यहाँ अमीरी का दिखावा था। वह सरल स्नेह का प्रसाद उसे अपनी ओर खींचता था। यह अमीरी ठाट अपनी ओर से हटाता था। बचपन में ही वह माता के स्नेह से वंचित हो गया था। जीवन के पन्द्रह साल उसने शुष्क शासन में काटे। कभी माँ डाँटती, कभी बाप बिगड़ता, केवल नैना की कोमलता उसके भग्न-हृदय पर फाहा रखती रहती थी। सुखदा भी आई, तो वही शासन और गरिमा लेकर, स्नेह का प्रसाद उसे यहाँ भी न मिला। वह चिरकाल की स्नेह-तृष्णा किसी प्यासे पक्षी की भांति, जो कई सरोवरों के सूखे तट से निराश लौट आया हो, स्नेह की यह शीतल छाया देखकर विश्राम और तृप्ति के लोभ से उसकी शरण में आई। यहाँ शीतल छाया ही न थी, जल भी था। पक्षी यहीं रम जाय, तो कोई आश्चर्य है !

उस दिन सकीना की घोर दरिद्रता देखकर वह आहत हो उठा था। वह विद्रोह जो कुछ दिनों से उसके मन में शान्त हो गया था, फिर दुने वेग से उठा।

वह धर्म के पीछे लाठी लेकर दौड़ने लगा। धन के सम्बन्ध का उसे बचपन से ही अनुभव होता आता था। धर्मबन्धन उससे कहीं कठोर, कहीं असह्य, कहीं निरर्थक था। धर्म का काम संसार में मेल और एकता

कर्मभूमि
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