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पैदा करना होना चाहिए। यहाँ धर्म ने विभिन्नता और द्वेष पैदा कर दिया है। क्यों खान-पान में, रस्म-रिवाज में धर्म अपनी टाँगें अड़ाता है ? मैं चोरी करूँ, खून करूँ, धोखा दूँ, धर्म मुझे अलग नहीं कर सकता। अछूत के हाथ से पानी पीलूँ, धर्म छु मन्तर हो गया। अच्छा धर्म है ! हम धर्म के बाहर किसी से आत्मा का सम्बन्ध भी नहीं कर सकते। आत्मा को भी धर्म ने बाँध रखा है, प्रेम को भी जकड़ रखा है ? यह धर्म नहीं है, धर्म का कलंक है।

अमरकान्त इसी उधेड़-बुन में पड़ा रहता। बुढ़िया हर महीने, और कभी-कभी महीने में दो-तीन बार, रूमालों की पोटलियाँ बनाकर लाती और अमर उसे मुँह-माँगे दाम देकर ले लेता। रेणुका उसको जेबखर्च के लिए जो रुपये देती, वह सब-के-सब रूमालों में जाते। सलीम का भी इस व्यवसाय में साझा था। उसके मित्रों में ऐसा कोई न था, जिसने एक-आध दर्जन रूमाल न लिये हों। सलीम के घर से सिलाई का काम भी मिल जाता। बुढ़िया का सुखदा और रेणका से भी परिचय हो गया था। चिकन की साड़ियाँ और चादरें बनाने का भी काम मिलने लगा; लेकिन उस दिन से अमर बुढ़िया के घर न गया। कई बार यह मजबूत इरादा करके चला पर आधे रास्ते से लौट आया।

विद्यालय में एक बार 'धर्म' पर विवाद हुआ। अमर ने उस अवसर पर जो भाषण किया, उसने सारे शहर में धूम मचा दी। वह अब क्रान्ति ही में देश का उद्धार समझता था--ऐसी क्रान्ति में, जो सर्वव्यापक हो, जो जीवन के मिथ्या आदर्शो का, झूठे सिद्धान्तों का, परिपाटियों का अन्त कर दे; जो एक नये युग की प्रर्वतक हो, एक नयी सृष्टि खड़ी कर दे; जो मिट्टी के असंख्य देवताओं को तोड़-फोड़कर चकनाचूर कर दे; जो मनुष्य को धन और धर्म के आधार पर टिकनेवाले राज्य के पंजे ले मुक्त कर दे। उसके एक एक अणु से 'क्रान्ति ! क्रांति !' की सदा निकलती रहती थी। लेकिन उदार हिन्दसमाज उस वक्त तक किसी से नहीं बोलता, जब तक उसके लोकाचार पर खुल्लम-खुल्ला आघात न हो, कोई क्रान्ति नहीं, क्रान्ति के बाबा का ही उपदेश क्यों न करें, उसे परवाह नहीं होती। लेकिन उपदेश की सीमा के बाहर व्यवहार क्षेत्र में किसी ने पाँव निकाला और समाज ने उसकी गरदन पकड़ी। अमर की क्रान्ति अभी तक व्याख्यानों और लेखों तक ही सीमित थी। डिग्री की परीक्षा समाप्त होते ही वह व्यवहार क्षेत्र में उतरना चाहता था। पर

कर्मभूमि
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