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अभी परीक्षा को एक महीने बाकी ही था कि एक ऐसी घटना हो गयी जिसने उसे मैदान में आने पर मजबूर कर दिया। यह सकीना की शादी थी।

एक दिन सन्ध्या समय अमरकान्त दूकान पर बैठा हुआ था, कि बुढ़िया सुखदा की चिकन की साड़ी लेकर आयी और अमर से बोली--बेटा, अल्ला के फजल से सकीना की शादी ठीक हो गयी है; आठवीं को निकाह हो जायगा। और तो मैंने सब सामान जमा कर लिया है। पर कुछ रुपयों से मदद करना।

अमर की नाड़ियों में जैसे रक्त न था। हकलाकर बोला--सकीना की शादी ! ऐसी क्या जल्दी थी?

क्या करती बेटा, गज़र तो नहीं होता, फिर जवान लड़की ! बदनामी भी तो है !'

'सकीना भी राजी है ?'

बुढ़िया ने सरल भाव से कहा--लड़कियाँ कहीं अपने मुंह से कुछ कहती हैं बेटा? वह तो नहीं-नहीं किये जाती है।

अमर ने गरजकर कहा--फिर भी तुम उसकी शादी किये देती हो?'

फिर सँभलकर बोला--रुपये के लिये दादा से कहो।

'तुम मेरी तरफ़ से सिफ़ारिश कर देना बेटा, कह तो मैं आप लूंगी।'

'मैं सिफ़ारिश करनेवाला कौन होता हूँ। दादा तुम्हें जितना जानते हैं, उतना मैं नहीं जानता।'

बुढ़िया को वहीं खड़ी छोड़कर, अमर बदहवास सलीम के पास पहुँचा। सलीम ने उसकी बौखलाई हुई सूरत देखकर पछा--खैर तो है ? बदहवास क्यों हो ?

अमर ने संयत होकर कहा--बदहवास तो नहीं हूँ। तुम खुद बदहवास होगे।

'अच्छा तो आओ, तुम्हें अपनी ताजी गजल' सुनाऊँ। ऐसे ऐसे शेर निकाले हैं, कि फड़क न जाओ तो मेरा जिम्मा।

अमरकान्त की गर्दन में जैसे फांसी पड़ गयी; पर कैसे कहे--मेरी इच्छा नहीं है। सलीम ने मतला पढ़ा--

बहला के सबेरा करते हैं इस दिल को उन्हीं की बातों में,

दिल जलता है अपना जिनकी तरह, बरसात की भीगी रातों में।

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कर्मभूमि