अमर ने ऊपरी दिल से कहा--अच्छा शेर है।
सलीम हतोत्साह न हुआ। दूसरा शेर पढ़ा--
कुछ मेरी नज़र ने उठके कहा, कुछ उनकी नज़र ने झुक के कहा,
झगड़ा जो न बरसों में चुकता, तय हो गया बातों-बातों में।
अमर झूम उठा--खूब कहा है भई ! वाह-वाह ! लाओ कलम चूम लूँ।
सलीम ने तीसरा शेर सुनाया--
यह यास का सन्नाटा तो न था, जब आस लगाये सुनते थे,
माना कि था धोखा ही धोखा, उन मीठी-मीठी बातों में।
अमर ने कलेजा थाम लिया--गज़ब का दर्द है भई! दिल मसोस उठा।
एक क्षण के बाद सलीम ने छेड़ा--इधर एक महीने से सकीना ने कोई रूमाल नहीं भेजा क्या?
अमर ने गंभीर होकर कहा--तुम तो यार मज़ाक करते हो। उसकी शादी हो रही है। एक ही हप्ता और है।
'तो तुम दुलहिन की तरफ़ से बारात में जाना। मैं दूल्हे की तरफ़ से जाऊँगा।'
अमर ने आँखें निकालकर कहा--मेरे जीते-जी यह शादी नहीं हो सकती। मैं तुमसे कहता हूँ सलीम, मैं सकीना के दरवाजे पर जान दे दूँगा, सिर पटककर मर जाऊँगा।
सलीम ने घबड़ाकर पूछा--यह तुम कैसी बातें कर रहे हो भाई जान ? सकीना पर आशिक़ तो नहीं हो गये। क्या सचमुच मेरा गुमान सही था ?
अमर ने आँखों में आँसू भरकर कहा--मैं कुछ नहीं कह सकता, मेरी क्यों ऐसी हालत हो रही है सलीम ; पर जब से मैंने यह खबर सुनी है, मेरे जिगर में जैसे आरा-सा चल रहा है।
'आखिर तुम चाहते क्या हो? तुम उससे शादी तो कर नहीं सकते।'
'क्यों नहीं कर सकता ?'
'बिलकुल बच्चे न बन जाओ। जरा अक्ल से काम लो।'
'तुम्हारी यही तो मंशा है कि वह मुसलमान है, मैं हिंदू हूँ। मैं प्रेम के सामने मज़हब की हक़ीक़त नहीं समझता, कुछ भी नहीं।'
सलीम ने अविश्वास के भाव से कहा--तुम्हारे खयालात तक़रीरों में