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तबाह करने का कोई हक नहीं रखता। बोला--मैं यह सब जानता हूँ सलीम, लेकिन मैं अपनी आत्मा को समाज का गुलाम नहीं बनाना चाहता। नतीजा जो कुछ भी हो उसके लिये तैयार हूँ। यह मुआमला मेरे और सकीना के दरमियान है। सोसाइटी को हमारे बीच में दखल देने का कोई हक नहीं।

सलीम ने सन्दिग्ध भाव से सिर हिलाकर कहा--सकीना कभी मंजूर न करेगी, अगर उसे तुमसे मुहब्बत है। हैं, अगर वह तुम्हारी मुहब्बत का तमाशा देखना चाहती है तो शायद मंजूर कर ले; मगर मैं पूछता हूँ, उसमें क्या खूबी है, जिसके लिए तुम खुद इतनी बड़ी कुर्बानी करने और कई जिन्दगियों को खाक में मिलाने पर आमादा हो ?

अमर को यह बात अप्रिय लगी। मुँह सिकोड़कर बोला--मैं कोई कुरबानी नहीं कर रहा हूँ और न किसी की जिन्दगी को खाक में मिला रहा हैं। मैं सिर्फ़ उस रास्ते पर जा रहा हूँ, जिधर मेरी आत्मा मुझे ले जा रही है। मैं किसी रिश्ते या दौलत को अपनी आत्मा के गले की जंजीर नहीं बना सकता। मैं उन आदमियों में नहीं हूँ, जो जिन्दगी को जिन्दगी समझते हैं। मैं ज़िन्दगी की आरजूओं को जिन्दगी समझता हूँ। मुझे जिन्दा रखने के लिए एक ऐसे दिल की जरूरत है, जिसमें आरजुएँ हों, दर्द हो, त्याग हो, सौदा हो, जो मेरे साथ रो सकता हो, मेरे साथ जल सकता हो। मैं महसूस करता हूँ, कि मेरी जिन्दगी पर रोज़-ब-रोज़ जंग लगता जा रहा है। इन चन्द सालों में मेरा कितना रूहानी ज़बाल हुआ, इसे मैं ही समझता हूँ। मैं जंजीरों में जकड़ा जा रहा हूँ। सकीना ही मुझे आजाद कर सकती है, उसी के साथ मैं रूहानी बलन्दियों पर उड़ सकता हूँ, उसी के साथ मैं अपने को पा सकता हूँ ! तुम कहते हो--पहले उससे पूछ लो। तुम्हारा खयाल है--वह कभी मंजूर न करेगी। मुझे यकीन है--मुहब्बत जैसी अनमोल चीज़ पाकर कोई उसे रद्द नहीं कर सकता।

सलीम ने पूछा----अगर वह कहे तुम मुसलमान हो जाओ?

'वह यह नहीं कह सकती।

'मान लो कहे।'

'तो मैं उसी वक्त एक मौलवी को बुलाकर, कलमा पढ़ लूंगा। मुझे इसलाम में ऐसी कोई बात नहीं नजर आती, जिसे मेरी आत्मा स्वीकार न

कर्मभूमि
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