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कलम, तलवार और त्याग


राजपूत हल्दीघाटी के मैदान को अपने खून से सींच गये जिनमें ५०० से अधिक राजकुल के ही राजकुमार थे।

मेवाड़ में जब इस पराजय की खबर पहुँची, तो घर-घर कुहराम मच गया। ऐसा कोई कुल न था जिसका एक-न-एक सपूत रण-देवी की बलि न हुआ हो। मेवाड़ का बच्चा-बच्चा आज तक हल्दीघाटी के नाम पर गर्व करता है। भाट और कवीश्वर गलियों और सड़कों पर हल्दीघाटी की घटना सुनाकर लोगों को रुलाते हैं, और जब तक मेवाड़ का कोई कवीश्वर जिंदा रहेगा और उसके हृदय-स्पर्शी कवित्व की क़दर करनेवाले बाकी रहेगे, तब तक हल्दीघाटी की याद हमेशा ताज़ी रहेगी।

उधर राणा अपने स्वामि-भक्त घोड़े चेतक पर सवार अकेला एकदम चल निकला। दो मुगल सरदारों ने उसे पहचान लिया और उसके पीछे घोड़े डाल दिये। अब आगे-आगे जख्मी राणा बढ़ा जा रहा है, उसके पीछे-पीछे दोनों सरदार घोड़ा दबाये बढ़े आते हैं। चेतक भी अपने मालिक की तरह जख्मों से चूर है। वह कितना ही जोर मारता कितना ही जी तोड़कर क़दम उठाता, पर पीछा करनेवाले निकट आते जा रहे हैं। अब उनके पाँवों की चाप सुनाई देने लगी। अब वह पहुँच गये। राणा का तेगा साँस लेता है कि यकायक उसे कोई पीछे से ललकारता है, ओ नीले घोड़े के सवार! ओ नीले घोड़े के सवार! बोली और ध्वनि बिल्कुल मेवाड़ी है। राणा भौंचक्का होकर पीछे देखता है, तो उसका चचेरा भाई शक्त चला आ रहा है। शक्त प्रताप से नाराज होकर अकबर से जा मिला था और उस समय शाहज़ादा सलीम के साथियों में था। पर अब उसने नीले घोड़े के सवार को ज़ख्मों से चूर, बिल्कुल अकेला मैदान से जाते हुए देखा तो बिरादराना खून जोश में आ गया। पुरानी शिकायतें और मैल दिल से बिल्कुल धुल गये और तुरंत पीछा करनेवालों में जा मिला। और अन्त में उन्हें अपने भालो से धराशायी करता हुआ राणा तक पहुँच गया। इस समय अपने जीवन में पहली बार दोनों भाई बन्धुत्व और अपने