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कलम, तलवार और त्याग
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राजपूत उसी दमखम, उसी हिम्मत व हौसले और उसी दृढ़ता के साथ शत्रु का सामना करता रहा, कभी अँधेरी रात में जब शाही फौज बेखबर सोती होती, वह अचानक अपनी घात की जगह से निकल पड़ता, इशारो से अपने साथियों को इकट्ठा कर लेता और जो शाही फ़ौज क़रीब होती, उसी पर चढ़ दौड़ता। फरीद खाँ को जो राणा को गिरफ्तार करने के लिए जंजीर बनवाये बैठा था, उसने ऐसी चतुराई से एक दुर्गम घाटी में जा घेरा कि उसकी सेना का एक भी आदमी जीवित न गया।

आखिर शाही फौज भी इस ढंग की लड़ाई से ऊब गई। मैदानों के लड़नेवाले मुगल पहाड़ो में लड़ना क्या जानें। उस पर से जब वर्षा आरंभ हो जाती, तो चौतरफा महामारी फैल जाती, यह बरसात के दिन प्रताप के लिए जरा दम लेने के दिन थे। इसी तरह कई बरस बीत गये। प्रताप के साथियों में से कुछ ने तो लड़कर वीरगति प्राप्त की, कुछ यों ही मर-खप गये। कुछ जो ज़ग बोदे थे, इधर-उधर दबक रहे। रसद और खुराक के लाले पड़ गये। प्रताप को सदा यह खटका लगा रहता कि कहीं मेरे लड़के-बाले शत्रु के पंजे में न फँस जायँ। एक बार वहाँ के जंगली भीलों ने उनको शाही फ़ौज से बचाया और एक टोकरे में रख जावरा की खानों में छिपा दिया, जहां वह उनकी सब प्रकार रक्षा और देख-भाल करते रहे। वह बल्ले और जंजीरें अभी तक मौजूद हैं—जिनमें यह टोकरे लटका दिये जाते थे, जिसमें हिंस्र जन्तुओं से बच्चों को डर न रहे। ऐसे-ऐसे कष्ट-कठिनाइयाँ झेलने पर भी प्रताप की अटल निश्चय तनिक भी न हिला। वह अब भी किसी गुफा में अपने मुट्ठी भर आख़िरी दम तक साथ देनेवाले और सब प्रकार का अनुभव रखनेवाले साथियों के बीच उसी आनबान के साथ बैठता जैसे राजसिंहासन पर बैठता था। उनके साथ उसी राजसी ढंग से बर्ताव करता। ज्योनार के समय खास-खास आदमियों को दोने प्रदान करता। यद्यपि यह दोने महज जंगली फलो के होते थे; परन्तु पानेवाले उन्हें बड़े आदर-