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मेरीबाल्डी
 


जानी चाहिए, उसने इन लोगों को कैद करके निर्वासित कर दिया। कितनों ही के कोड़े भी लगवाये। गेरीबाल्डी के साथ कुल ३०० आदमी थे। परीक्षा का समय बुरा होती है, पर उसकी दृढ़ता में तनिक भी अन्तर न पड़ा और न तनिक भी डरा-घबराया। उस छोटी-सी सेना के साथ शत्रु के घेरे से लड़ता भिड़ता निकल पड़ा और उनकी पाँतों को चीरता-फाड़ता समुद्र के किनारे आ पहुँचा। यहाँ १५ नावें तैयार थीं। उनमें बैठकर वेनिस की ओर चल पड़ा। थोड़ी दूर गया था कि आस्ट्रिया के जहाज पीछा करते हुए दिखाई दिये और देखते-देखते उसके साथ की १३ नावें उनके हाथ में पड़ गई। केवल दो जिनमें गेरीबाल्डी, उसकी पत्नी और कुछ साथी सवार थे, एक टापू के किनारे आ लगीं। यहाँ वह घटना घटित हुई जो गैरीबाल्डी के जीवन का सबसे अधिक करुण अध्याय है। बेचारी अनीता गर्भवती थी और दिन-रात दौड़ते-भागते फिरने के कष्टों से घबरा गई थी। थकावट और रोग की प्रबलता ने उसे चलने-फिरने में भी असमर्थ बना दिया था। गेरीबाल्डी ने कोई उपाय न देख साथियों को छोड़ दिया और पत्नी को गोद में लेकर चला। तीन दिन के बाद उसने एक किसान का दरवाजा खटखटाया और पानी माँगा। अनीता को बड़े ज़ोर की प्यास लगी हुई थी। पर वह मौत की प्यासी थी जो शरबते मर्ग के चखने ही से बुझी। गेरीबाल्डी उसके मुँह में पानी की बूंदे टपका रहा था कि उसके प्राणपखेरू उड़ गये। गेरीबाल्डी के हृदय पर यह घाव आजीवन बना रहा, यहाँ तक कि अन्तिम क्षण में भी अपनी प्यारी पत्नी ही का नाम उसको जबान पर था। बहुत रोया, पीटा। पर वहाँ रोने को भी अवकाश न था। दुश्मन क्लब अ पहुँचा था। लाचार वहाँ से भागकर वेनिस पहुँचा और वहाँ से जिनेवा की ओर चला। पर कहीं अभीष्ट-सिद्धि का कोई उपाय न दिखाई दिया। जिनेवा से ट्यूनिस होता हुआ जिन्नादर पहुँचा। पर यहाँ भी उसे चैन न मिल सका। सरकार उसके नाम से घबड़ाती थी। यहाँ तक कि जिब्राल्टर में भी, जो अँग्रजी अमलदारी है, उसे रहने की इजाजत