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गेरीबाल्डी
 


१८३९ ई० में उस देश की सहायता करने को निमन्त्रित किया। गेरीबाल्डी तुरत अपने शान्तिकुटीर से निकल पड़ा। छोटे-बड़े सबके हृदयों: में उसके लिए इतना आदर था, और वह अपनी नीयत का इत्ता सच्चा और भला था कि दूसरे सैनिक अधिकारी जो-इस विप्लव से स्वार्थ-साधन करने के फेर में थे, उससे बुरा मानने लगे। परन्तु नवयुवक नरेश विक्टर इमानुएल ने जो गेरीबाल्डी के गुण-स्वभाव से भली-भाँति परिचित था, उससे कहा----‘आप जहाँ चाहें जायँ, जो चाहें करें, मुझे केवल इस बात का दुःख हैं कि मैं मैदान में आपकी बराल में रहकर अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता।

इस प्रकार बादशाह से यथामति कार्य करने को अधिकार पाकर गेरीबाल्डी ने आस्ट्रिया के विरुद्ध उन छोटी-छोटी लड़ाइयों का सिलसिला शुरू किया जो इतिहास में अपना जोड़ नहीं रखतीं। उसके साथ १७ हजार आदमी थे और ये सब नवयुवक स्वयं-सेवक थे जिन्होंने देशहित पर अपने प्राणों को उत्सर्ग कर देने को सङ्कल्प कर लिया था। उनकी सहायता से उसने कितनी ही लड़ाइयाँ मारी, कोमो और बरगाओ छीन लिया, और अन्त में उत्तर इटली से शत्रु को निकाल बाहर किया। उधर पेडमांट और फ्रांस की संयुक्त सेना ने भी आस्ट्रियावालों को कई मारको में हराया और लुबांडी छीन लिया। पर जीतों का यह सिलसिला अधिक दिन न चलने पाया। सम्राट नेपोलियन ने पेडमांड का बल अधिक बढ़ते देख लड़ाई बन्द कर देने का हुक्म दिया। आस्ट्रिया ने भी मौका गनीमत जाना और कुछ देर दम ले लेना मुनासिब समझा। गेरीबाल्डी शुरू से कहता आता था कि राष्ट्र बाहरी शक्तियों की सहायता से कभी स्वाधीनता नहीं प्राप्त कर सकता। वह फ्रांस की सहायता स्वीकार करने के एकदम विरुद्ध था, पर पेडमांट-सरकार ने उसकी सलाह के खिलाफ काम किया था, और अब उसे अपनी अदूरदर्शिता का फल भुगतना पड़ा। उस समय थोड़े ही दिनों तक लड़ाई और जारी रहती तो इटली से आस्ट्रिया की सत्ता की जड़ उखड़ जाती, पर लड़ाई के बन्द हो जाने से उसे फिर शक्ति-संचय का अवसर मिल,