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कलम, तलवार और त्याग
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गया। अन्त में गैरीबाल्डी ने नाराज होकर इस्तीफा दे दिया, पर शाह इमानुएल ने ऐसे नाजुक वक्त में उसका इस्तीफा मंजूर करना मुनासिक ना समझा। अतः गैरीबाल्डी ने अपने ही स्वयंसेवकों से स्वतंत्र रूप में, युद्ध जारी रखने का जिम्मा लिया, पर उस पर चौतरफा से प्रत्यक्ष रूप में ऐसे दबाव पड़ने लगे कि अन्त में हताश होकर उसने फिर इस्तीफा दे दिया, और अबकी बार वह स्वीकार कर लिया गया, यद्यपि राष्ट्र ने इसका प्रबल विरोध किया।

पर स्वाधीनता के पुजारी और स्वदेश के सच्चे प्रेमी से कब चुप बैठा जाता था। लेखों और भाषणों से वह जनता को स्वाधीनता प्राप्ति के लिए उभारता रहता था। गुप्त रूप से वितरित पर्चो और पुस्तकों के द्वारा उसके राष्ट्रीय भाव उत्तेजित किये जाते, बराबर घोषणाएँ प्रकाशित की जाती थीं, जिनमें उद्देश्य-सिद्धि के साधनों और उपायों पर जोरदार शब्दों में बहस की जाती थी। गैरीबाल्डी का मत था कि जब तक देश मैं १० लाख बंदूके' और १० लाख निशानेबाज न हो जायेंगे, राष्ट्र स्वाधीन न हो सकेगा। इन घोषणाओं का प्रभाव अन्त में यह हुआ कि अमरीकावालों ने सहायता-रूप में चौबीस हजार बंदूके' एक जहाज में लदवाकर गैरीबाल्डी के पास भेजीं। कई हजार नौजवान अपने को राष्ट्र पर कुरबान कर देने को तैयार हो गये और गेरीबाल्डी २ हजार जवानों को लेकर सिसली की ओर चला। यहाँ नेपुल्स के बादशाह ने प्रजा को सता सताकर विप्लव के लिए तैयार कर रखा था। इन उत्पीड़ित ने ज्यों ही सुना किं मेरीबाल्डी उनकी सहायता को आ रहा है, अपनी-अपनी तैयारियों में। लग गये और बड़े उत्साह से उसका स्वागत किया। मसाला तैयार था ही, गेरीबाल्डी ने आते ही आते पल्रमो पर ऐसा जोर का धावा किया कि शाही फौज किला-बन्द हो गई और उसने प्राणभिक्षा माँगी। जनता का उस पर ऐशा विश्वास था कि उसने उसे अपना उद्धारक मानकर सिसली के अधिनायक की उपाधि दी। शाह इमानुएल पहले ही से इस युद्ध के विरुद्ध थे, इस डर से कि नेपुल्स-नरेश आस्ट्रिया से