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गेरीबाल्डी
 

१८६७ ई० में गेरीबाल्डी ने फिर रोम पर हमला करने की तैयारियाँ शुरू की। इटलीसरकार ने उसके रास्ते में बहुत रुकावटें डाली और उसे कैद भी कर दिया, पर वह इन सब विघ्न-बाधाओं को पार करता हुआ अन्त में फ्लोरेंस में आ पहुचा। इटली में अब पोप ही का राज्य ऐसा खण्ड रह गया था जहाँ राष्ट्रीय शासन न हो, और गेरीबाल्डी की आत्मा को तब तक शान्ति नहीं मिल सकती थी, जब तक कि वह इटली की एक-एक अंगुल जमीन को विदेशी शासन से मुक्त न कर ले। यद्यपि उसने दो बार रोम को. पोप के पंजे से निकालने का महाप्रयत्न किया, पर दोनों बार विफल रहा। ज्यों ही इसके फ्लोरेंस में आ पहुँचने की खबर मशहूर हुई, जनता में जोश फैल गया और कुछ ही दिनों में स्वयंसेवकों की खासी सेना उसके साथ हो गई। पोप की सेना भी तैयार थी। युद्ध आरंभ हो गया और यद्यपि पहली जीत गेरीबाल्डी के हाथ रही, पर दूसरी लड़ाई में फ्रांस और पोप की ख़ातिर तोप-बन्दूक का सामना करता है। और उसे प्रुशिया के पंजे में पड़ने से बचा लेता है।

फ्रांस और प्रुशिया में संधि हो जाने के बाद गेरीबाल्डी अपने घर लौट आया और चूँकि जाति को अब उसकी सामरिक योग्यता की आवश्यकता न थी, इसलिए अपने कुटुम्ब के साथ शान्ति से बुढ़ापे के दिन बिताने लगा। पर इस अवस्था में भी देश की ओर से उदासीन न रहता था, किंतु उसके शिल्प और उद्योग की उन्नति के उपाय सोचने में लगा रहता था। १८७५ ई० में वह बाल-बच्चों के साथ रोम की यात्रा को रवाना हुआ। यहाँ जिस ठाट से उसका स्वागत हुआ वह दुनिया के इतिहास मैं बेजोड़ घटना है। जब वह यहाँ से वापस चला तो २० हजार आदमी पैदल, राष्ट्रीय गीत गाते- बजाते उसे विदा करने आये। उसके सारे जीवन के आत्म-त्यागों के बदले में यही एक दृश्य पर्याप्त था।

गेरीबाल्डी का शेष जीवन कपरेरा मैं व्यतीत हुआ। यहाँ वह अपने बाल-बच्चों के साथ शाँन्ति से जीवन-यापन करता रहा। उसकी