और टीकाओं की सहायता से उनको समझने का यत्न करते रहे।
जब गुलिस्ताँ का तीसरा अध्याय पढ़ते थे और उनकी अवस्था कुल १४ साल की थी, हजरत मौलाना की स्तुति में फारसी में एक क़सीदा लिखी जिसमें १०१ शेर हैं और सुप्रसिद्ध कवि उर्फी के एक क़सीदे के जवाब में लिखा गया है। मौलाना ने हजरत के सामने आम मज़मे में ऊँचे स्वर से यह क़सीदा पढ़कर सुनाया जिसे सुनकर श्रोतृमण्ली विस्मय-विमुग्ध हो गई कि इस उम्र और इस योग्यता को बच्चा ऐसे क्लिष्ट भावों को क्योंकर बाँध सका। वस्तुतः यह हज़रत मौलाना का ही प्रसाद था और 'तज़किरए ग़ौसिया' में यह क़सीदा उनकी करामत के दृष्टान्त-रूप में छापा गया है। इस रचना के पुस्कार रूप में हज़रत ने एक जयपुरी अशरफ़ी और एक ज़री के काम की बनारसी चादर मौलाना को प्रदान की थी।[१]
मिडिल तक पढ़ने के बाद मौलाना सलीम पानीपत से लाहौर पहुँचे, जहाँ मौलाना फैजुलहसन साहब सहारनपुरी से अरबी पढ़ी जो उस समय ओरीयंटल कालिज के अरबी के प्रोफ़ेसर थे। तफ़सीर (क़ुरान की व्याख्या) भी उन्हीं से पढ़ी। फ़िक़ाह (इसलामी धर्मशास्त्र) और तर्क तथा दर्शनशास्त्र का अध्ययन मौलाना अब्दुल अहद टौकी से किया। यह सारी पढ़ाई महज शौक़ की चीज और स्वतंत्र कार्य था। एंट्रेंस और मुन्शी फाज़िल के सिवा विश्वविद्यालय की और कोई परीक्षा पास नहीं की। हाँ विश्वविद्यालय के अध्यापकों से पाश्चात्य दर्शन, विज्ञान, रसायनशास्त्र और गणित का अध्ययन किया, पर इस सिलसिले में भी कोई परीक्षा नहीं दी। क़ानून पढ़ कर वकालत करने का विचार था, और कानून के दरजे में भरती भी हो गये थे, पर जीविका की आवश्यकता से लाचार होकर यह विचार त्याग देना पड़ा और भावलपुर रियासत के शिक्षा विभाग में नौकरी कर ली। एजर्टन कालिज भावलपुर में ६ साल काम करने के बाद रामपुर रिया-
- ↑ तज़किरए ग़ौसिया।