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कलम, तलवार और त्याग
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करता था, उसमें बड़े-बड़े प्रौढ़ कवि समिलित होते थे। मित्रों के आग्रह से मौलाना भी उसमें समिलित होने लगे और मित्रों तथा शिष्यों ने उन रचनाओं को मासिकों में छपने के लिए बाहर भेजना शुरू कर दिया। गज़लो के अतिरिक्त अब उनकी स्थायी रचनाएँ भी पत्रों में प्रकाशित होने लगीं। जब मौलाना हाली जीवित थे तो मौलाना ने अकसर अपनी रचनाएँ सुनाई, पर इसलाह कभी नहीं ली। मौलाना हाली इनके कहने के ढंग और भावों की सुन्दरता पर अकसर घण्टों झुमा करते थे। कहा करते थे कि तुम तो डायरी के छिपे देवता हो।

मौलाना हाली ने अपने ‘मुकदमए शेरो शायर' में उर्दू कविता के खासकर राजलगोई के जो दोष बताये हैं, मौलाना ने उनको त्याग दिया था। गज़ल मैं जो भाव वह निबद्ध करते थे, वह प्रायः राजनीति के और नीति-संबन्धी होते थे, जो उपमा और रूपक के पर्दे में व्यक्त • किये जाते थे। समझनेवाले उन इशारों को समझते और मजे लेते थे। मौलाना के काव्य की एक बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने मुसल- मानों के सांप्रदायिक भेद को कभी प्रकट नहीं किया। हिन्दू-मुसलमानों को सदा मेल का उपदेश देते रहे। कोई बात जो किसी इसलामी फिरके या हिंदुओं के दिल को चोट पहुंचाती हो, कभी उनकी क्रम से नहीं निकली। आपने हिन्दुओं के इतिहास और साहित्य का उसी सम्मान के साथ उल्लेख किया है जिस प्रकार एक सुसंस्कृत कवि को करना चाहिए।


स्थायी रचनाएँ-

मौलाना की स्थायी रचनाएँ दो प्रकार की हैं। एक वह जो हृदय की स्फूर्ति से लिखी हैं, दूसरी वह जो अंग्रेजी कवियों की रचनाओं के आधार पर हैं। पहले प्रकार की रचनाओं में कुछ ऐसी हैं, जो रघनाशैली, नये-पुराने रूपकों की उत्प्रेक्षाओं के सुन्दर प्रयोग और सुक्ष्म गंभीर भावों के विचार से निस्सन्देह 'मास्टरपीस' कही जाने योग्य हैं। दूसरे प्रकार की रचनाओं में भी उन्होंने कवित्व के प्राण को