रचकर पढ़नेवालों पर अपनी विद्वत्ता का सिक्का बैठाना नहीं चाहते; किन्तु प्रत्येक विषय और प्रबन्ध को आदि से अन्त तक सरल और चलते ढंग से लिखना चाहते हैं। यह बात स्वयं विषय के अधिकार में
है कि किसी जगह अपने-आप ओल की धारा बह निकले और उनके
विचारों को अपने प्रवाह में बहा ले जाय। इच्छा और प्रयत्न का उसमें
कोई दखल नहीं होता। सारांश, गद्य-लेखन में वह सर सैयद की शैली के अनुगामी थे। अरबीदाओं का समुदाय आजकल जिस प्रकार
अरबीलुमा उर्दू लिखता है, उसको वह अपने लिए पसन्द न करते थे।
हालाँकि अगर वह चाहते तो अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य और अरबी
भाषा पर असाधारण अधिकार के सहारे क्लिष्ट से क्लिष्ट अरबी मिश्रित
भाषा लिख सकते थे। वस्तुतः उन्हें ऐसी भाषा से बड़ी घबराहट होती थी।
चूँकि इन पंक्तियों के लेखक को मौलाना की सुहबत से लाभ उठाने के बहुत अधिक अवसर मिले हैं, महीनों एक जगह का उठना-बैठना रहा है, इसलिए इस विषय में उनकी रुचि-प्रवृत्ति का विशेष रूप से पता है। अकसर ऐसा संयोग हुआ है कि मौलाना कोई दैनिक, साप्ताहिक या मासिक पत्र पढ़ रहे हैं, पढ़ते-पढ़ते किसी जगह रुक गये और अपने खास ढंग मैं उस रचना या शैली के दोष-गुण की समीक्षा आरम्भ कर दी, या स्वर के उतार-चढ़ाव या लहजे के अदल-बदल से प्रशंसा को निन्दा व्यंजित करने लगे। मौलाना कि संगति में ऐसे अवसर बहुत ही मनोरंजक होते थे।
मौलाना जिस विषय कोउठाते, अकसर उसके गंभीर ज्ञान का परिचय देते थे। इस प्रकार के निबंधों में से ‘तुलसीदास की शायरी', 'अरब की शायरी' औरंगाबाद (दक्षिण) से प्रकाशित होनेवालें त्रैमासिक 'उर्दू' में प्रकाशित होकर लोकप्रिय हो चुके हैं। उनके लेख 'तहजिबुल अखलाक़', 'इंस्टिट्यूट गजट', 'मआरिफ’, ‘अलीगढ़ मन्थली' आदि पत्रों में प्रकाशित हुए हैं। यह सब इकट्ठा कर दिये जायें तो एक अति सुन्दर साहित्यिक संग्रह तैयार हो सकता है।