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कलम, तलवार और त्याग
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और इतनी सामथ्रर्य न थी कि अपने लड़कों को अंग्रेजी पढ़ने के लिए किसी शहर में भेज सकें। संयोगवश १८४७ ई० में उनकी बदली रत्नागिरी को हुई। यहाँ एक अंग्रेजी स्कूल खुला हुआ था। बालक रामकृष्ण ने इसी स्कूल में अंग्रेजी की पढ़ाई आरंभ की और छः साल मैं उसे समाप्त कर एलफिन्स्टन कालेज बंबई में भरती होने का हठ किया। बाप ने पहले तो रोकना चाहा, क्योंकि उनकी आमदनी इतनी न थी कि कालिंज की पढ़ाई का खर्च उठा सकते, पर लड़के को पढ़ने के लिए बेचैन देखा तो तैयार हो गये। इस समय तक बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना न हुई थी, और उपाधियाँ भी न दी जाती थीं। मिस्टर दादाभाई नौरोजी उस समय उक्त कालेज में प्रोफेसर थे। रामकृष्ण ने अपनी कुशाग्रबुद्धि और परिश्रम से थोड़े ही दिन में विद्यार्थी मण्डल में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया और पढ़ाई समाप्त होने के बाद उसी कालिज में प्रोफेसर हो गये। उसी समय आपको संस्कृत पढ़ने का शौक़ पैदा हुआ और अवकाश का समय उसमें लगाने लगे। इस बीच बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, और प्रोफेसरों को ताकीद हुई कि वह बी० ए० की सनद हासिल कर लें, नहीं तो नौकरी से अलग कर दिये जायेंगे। डाक्टर भांडारकर ने अवधि के अन्दर ही एम० ए० पास कर लिया और हैदराबाद सिंध के हाई स्कूल के हेड मास्टर नियुक्त हुए। साल भर बाद अपने पुराने शिक्षा-स्थान रत्नागिरी स्कूल की हेडमास्टरी पर बदल दिये गये। यहाँ उन्होनें संस्कृत की पहली और दूसरी पोथियाँ लिखीं जो बहुत लोकप्रिय हुई। अब तक इनके बीसौं संस्करण हो चुके हैं। संस्कृत भाषा को अध्ययन इनकी बदौलत पहले की अपेक्षा बहुत सुगम हो गया। और इनका इतना प्रचार है कि किसी आरंभिक विद्यार्थी का बस्ता उनसे खाली न दिखाई देगा। दस साल तक आप एल्फिन्स्टन और डेकन कालेजों में असिस्टेण्ट प्रोफेसर की हैसियत से काम करते रहे। १८७९ में डाक्टर कीलहाने के पदत्याग के अन्तर डेकन कालिज में स्थायी रूप से प्रोफेसर हो गये और तब से पेंशन लेने तक उसी पद पर बने रहे।