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डा० सर रामकृष्ण भांडारकर
 


प्रेमकथा ही क्यों न हो, वह उसे सोना-चाँदी बनाने का नुस्खा समझे बैठा है। और उस पर किसी दूसरे की निगाह पड़ जाना भी उसे सहन नहीं। ऐसे लोगों को मनाना डाक्टर भांडारकर का ही काम था। आज यह लंबी-चौड़ी रिपोर्ट विद्वानों और इतिहास-प्रेमियों के लिए आश्चर्य का विषय बन रही है। और संभवतः कुछ दिनों तक लोग उसे गंभीर अध्ययन, शुद्ध वर्गीकरण और ऐतिहासिक अन्वेषण का नमूना समझते रहेंगे।

१८८६ ई० में वायना मैं पाच्यविद्या के पण्डितों का सम्मेलन फिर हुआ। अबकी डाक्टर भांडारकर ने उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया और इस यात्रा में यूरोप की स्थिति को बारीकी के साथ देखा, समझा। इसके एक साल बाद भारत सरकार ने उन्हें सी० आई० ई० की उपाधि प्रदान कर उनकी विद्वत्ता का समादर किया। अध्ययन और अन्वेषण की यह कार्य जारी रहा। यहाँ तक कि पेंशन का समय आ पहुँचा और डाक्टर भांडारकर ने अवकाश ग्रहण कर पूने को अपना वासस्थान बनाया है पर देश को अभी उनकी सेवाओं की आवश्यकता थी! १९०१ में आप बंबई विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बनाये गये जो देश पर उनके सतत उपकारों को स्वीकार करना मात्र था।

उपर्युक्त कार्यों के अतिरिक्त डाक्टर भांडारकर ने बांबे गजेटियर के लिए दक्षिण भारत का प्राचीन इतिहास लिखा, जो प्रत्येक दृष्टि से प्रामाणिक इतिहास कहा जा सकता है। वह घटनाओं की विस्तृत तालिका मात्र नहीं है, किन्तु उससे मुसलमानों के हमले के पहले की सामाजिक अवस्था, रीति-नीति, और नियम व्यवस्था का भी परिचय मिलता है। इस इतिहास का मसाला इधर-उधर बिखरा पड़ा था, उसे इकट्ठा करना, विभिन्न घटनाओं को काल-निर्णय और इस ‘कहीं का ईट कहीं को रोड़ा' से सुसंबद्ध इतिहास का सुविशाल प्रसाद खड़ा कर लेना कठिन कार्य था। सच तो यह है कि डाक्टर भांडारकर सहज वियानुरागी थे। ज्ञान से उन्हें उत्कट प्रेम था, एक प्यास थी जो किसी पकार न बुझती थी। प्रकृति ने उन्हें खोज और जाँच-पढ़-