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कलम, तलवार और त्याग
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लेकर इस नई मुहीम पर चल खड़ा हुआ और अरावली के पश्चिमी अचल को पार करता हुआ मरुभूमि के किनारे तक जा पहुँचा। पर इस बीच एक ऐसी शुभ घटना घटित हुई जिसने उसका विचार बदल दिया और उसे अपनी प्रिय जन्मभूमि को लौट आने की प्रेरणा की। राजस्थान का इतिहास केवल प्राणोत्सर्ग और लोकोत्तर वीरता की कथाओ से ही नहीं भरा हुआ है, स्वामि-भक्ति और वफादारी के सतत् स्मरणीय और गर्व करने योग्य दृष्टान्त भी उसमें उसी तरह भरे पड़े हैं। भामाशाह ने जिसके पुरखे चित्तौड़ राज्य के मंत्री रहे, जब अपने मालिक को देश-त्याग करते हुए देखा तो नमकख़्वारी का जोश उमड़ आया। हाथ बाँधकर राणा की सेवा में उपस्थित हुआ और बोला—महाराज, मैंने अनेक पीढ़ियों से आपका नमक खाया है, मेरी जमा-जथा जो कुछ है, आप ही की दी हुई है। मेरी देह भी आप ही की पाली पोसी हुई है। क्या मेरे जीते जी अपने प्यारे देश को आप सदा के लिए त्याग देगे। यह कहकर उस वफ़ादारी के पुतले ने अपने खजाने की कुंजी राणा के चरणों पर रख दी। कहते है कि उस खजाने में इतनी दौलत थी कि उससे २५ हजार आदमी १२ साल तक अच्छी गुजर कर सकते थे। उचित है कि आज जहाँ राणा प्रताप के नाम पर श्रद्धा के हार चढाये जायँ, वहाँ भामाशाह के नाम पर भी दो-चार फूल बिखेर दिये जायँ।

कुछ तो इस प्रचुर धनराशि की प्राप्ति और कुछ पृथ्वीसिंह की वीर-भाव भरी कविता ने राणा के डगमगाते हुए मन को फिर से दृढ़ कर दिया, उसने अपने साथियों को जो इधर-उधर बिखर गये थे, झटपट फिर जमा कर लिया। शत्रु तो निश्चिन्त बैठे थे कि अब यह बला अरावली के उस पार रेगिस्तान से सर मार रही होगी कि राणा अपने दल के साथ शेर की तरह टूट पड़ा और कोका शाहबाज खाँ को जो दोयर में सेना लिये निश्चिन्त पड़ा था, जा घेरा। दम के दम में सारी सेना धराशायी बना दी गई। अभी शत्रु-पक्ष पूरी तरह सजग ने होने पाया था कि राणा कुंभलमेर पर जा डटा और अब्दुल्ला तथा