पृष्ठ:कलम, तलवार और त्याग.pdf/१६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कलम, तलवार और त्याग
[ १६४
 


उनकी बातचीत भी अधिकतर अंग्रेजी में होती है। उन्हें न जातीय भाषा में कोई विशेष प्रेम है, न जातीय पहनावे से, न जातीय शिष्टाचार से। वे तो जातीय आचार-व्यवहार का विरोध करने में ही अपने सुधार के उत्साह की प्रदर्शन करते हैं। संभवतः उनका मन यह सोचकर प्रसन्न होता है कि कम-से-कम पहनावा-पोशाक और तौर-तरीके में तो हम भी अंग्रेजों के बराबर हैं। जातीय पहनावा उनके विचार में पुराण पूजा का प्रमाण है। पर जस्टिस बद्रुद्दीन ने हाईकोर्ट की जज के उच्च पद पर प्रतिष्ठित होने और अंग्रेजी की ऊँचे दरजे की योग्यता रखने पर भी अपनी चाल-ढाल नहीं बदली। अदालत की कुरसी पर हो या मित्रों की मण्डली मैं, वही पुराना अरबी पहनावा बदन पर होता था।

जस्टिस बद्रुद्दीन बड़े ही स्वाभिमानी व्यक्ति थे। अपने कर्तव्यों के पालन में वह सदा बहुत ही ऊँचा आदर्श अपने सामने रखते थे। अफ़सरो के प्रसाद के प्रलोभन या रोष के भय से वह कभी अपनी अन्तरात्मा का गला ने घोंटते थे। कांग्रेस के सुप्रसिद्ध नेता स्वर्गवासी पण्डित बालगंगाधर तिलक पर जब सरकार ने राजद्रोह का मुक़दमा चलाया और वह दौरा सिपुर्द हुए तो उनके वकीलों ने उन्हें जमानत पर छोड़ने की दर्ख्वास्त दी। वह दर्ख्वास्त जस्टिस बद्रुद्दीन के इजलास पर पेश हुई। अधिकारियों का ख्याल मिस्टर तिलक की ओर से स्रराब था और इस सरकारी अपराधी' की जमानत मंजूर करना निश्चय ही सरकार की अप्रसन्नता का कारण होता। जस्टिस बद्रुद्दीन के लिए कठिन परीक्षा का प्रसङ्ग था। आप न्यायासन पर विराजमान थे और न्याय नीति से तिलभर भी हटना आपको सहन न था। अतः अपने तिलकजी की जमानत मंजूर कर छी। सारे देश में आपकी न्याय- निष्ठा की प्रसिद्धि हो गई।

जस्टिस बद्रुद्दीन में स्वधर्म और स्वजाति का अभिमान कूट-कूटकर भरा हुआ था। इनकी उचित आलोचना सुनने में तो आपको आपत्ति न थी। पर इनका अपमान असह्य था। क़ाज़ी कबीरुद्दीन साहब ने