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सर सैयद अहमद खाँ
 


उन्होंने आपके मकान को घेर लिया, उन्हें तरह तरह की धमकियाँ दीं। यहाँ तक कि उनका मकान उनसे जबर्दस्ती खाली करा लिया और उनका माल-असबाब भी लूट लिया। सैयद अहमद खाँ ने धैर्य और दृढ़ता के साथ यह सारी मुसीबतें झेल ली, पर जिन्हे शरण दी थी, उन्हें बारियों के हवाले न किया। जब विप्लव शान्त हो गया और अंग्रेज सरकार की सत्ता देश पर फिर से स्थापित हुई तो बागियों के अपराधों की जाँच के लिए एक कमेटी बनाई गई और सैयद अहमद उसके सदस्य बनाये गये। उस समय इस बात का बड़ा डर था कि अपराधियों के साथ निरपराध भी न पिस जायँ ? आक्रमण करनेवालों के साथ आत्मरक्षा में तलवार उठानेवाले भी सरकार को कोप-भाजन न हो जायँ। सैयद अहमद इसी नेक इरादे से कमेटी में सम्मिलित हुए कि यथासम्भव निरपराधों की रक्षा करे। किसी निजी लाभ या पद-पुरस्कार की उन्हें कदापि कामना न थी। यहाँ तक कि अब एक बागी मुसलमान रईस की बहुस बड़ी जायदाद जब्त कर ली गई और सरकार ने उसे आपकी सेवाओं के पुरस्काररूप में उन्हें प्रदान करना चाहा तो उन्होंने उसे धन्यवाद के साथ लौटा दियो। एक विपद्ग्रस्त भाई की त्राही से लाभ उठाना उनके आनदार इसलासी स्वभाव ने स्वीकार न किया।

दो साल बाद सैयद अहमद खाँ ने "असबाबे बग़ावते हिन्द" नाम की पुस्तक प्रकाशित की जिसमें उन्होंने तथ्यों और तर्को' से सिद्ध किया कि यह ग़दर न राष्ट्रविप्लव था, न आजादी की लड़ाई और न किसी तरह की साजिश, किंतु केवल सरकारी सिपाहियों ने अपने अफसरों की अवज्ञा की और वह भी अज्ञान और अंधविश्वासवश। चूंकि सरकार का यह खयाल था कि इस रादर को उभारनेवाले मुसलमान हैं, इसलिए इस पुस्तक का उद्देश्य यह भी था कि मुसलमानों के सिर से यह इलज़ाम दूर कर दिया जाय, और इसमें संदेह नहीं कि सैयद अहमद ख़ाँ को इसमें सफलता मिली। उन्होने इस पुस्तक को भारत सरकार और पार्लमेण्ट में भेज़ा और चूॅकि सरकार