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कलम, सलवार और त्याग
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को उनकी राज-भक्ति और शुभचिन्तना पर पूरा भरोसा था, इसलिए उसने उनके दिखाये हुए कारण और दलीलों पर ठंडे दिल से विचार किया और जो शिकायते' उसे ठीक मालूम हुई उनको दूर करने का वचन भी दिया। सैयद अहमद खाँ के इस नैतिक साहस की किन शब्दों में बड़ाई की जाय। जिस समय सरकार का रुख सख्ती करने का था और किसी की जुबान खोलने की हिम्मत न होती थी कि कहीं उस पर भी बगावत का संदेह न किया जाने लगे , उस समय सरकार के रुख की आलोचना करना और उसकी भूलों का भंडाफोड़ करना देश और जाति की बहुमुल्य सेवा थी।

सैयद अहमद खाँ को जो काम सौंपा जाता था, उसे वह दिलोजान से पूरा करते थे। उनका सिद्धान्त था कि जो काम करना हो, उसे दिल से करना चाहिए। बेदिली से या बेगार समझकर वह कोई काम न करते थे। वह मुरादाबाद में थे अब अवर्षण से फसल मारी गई और देश में भयानक दुर्भिक्ष उपस्थित हो गया। सरकार ने वहाँ एक खैरात खाना खोला और उसका प्रबन्ध सैयद अहमद खाँ को सौंपा। उस समय उन्होंने जितनी मुस्तैदी से अकाल-पीड़ितों की सहायता की, पर्दानशीन महिलाओं और भूखों मरते सफेदपोशों को जिस हमदर्दी के साथ मदद पहुँचाई उसकी यथोचित प्रशंसा नहीं की जा सकती। चाहे जिस धर्म या संप्रदाय का भी हो, सबके साथ उनकी एक-सी सहानुभूति थी।

आजकल तो धार्मिक वाद-विवादों का जोर कुछ कम हो गया है, पर इस जमाने में ईसाई पादरी-ईसाई मत के प्रचार के जोश में हिन्दू और मुसलमान मजहबों पर खुलेआम आक्षेप किया करते थे। और चूँकि उस समय आलिमों और पंडितों में यह योग्यता न थी कि वह शास्त्र वचनों और धार्मिक परम्पराओं की युक्ति-संगत व्याख्या कर सकें। और शब्दों में पर्दे मैं छिपे हुए अर्थ को स्पष्ट कर सकें। इस कारण ईसाई प्रचारकों के सामने वह निरुत्तर हो जाते थे और इसका जनसाधारण पर बहुत बुरा असर पड़ता था। सैयद अहमद खाँ ने पाद-