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सर सैयद अहमद खाँ
 


रियों के इस हमले से इसलाम को बचाने के लिए यह आवश्यक समझा कि उनके आक्षेपों की मुँहतोड़ जवाब दिया जाय और कुरान और बाइबिल की तुलना करके दिखाया जाय कि दोनों धर्म-ग्रन्थों में कितनी समानता है। इसी उद्देश्य से उन्होंने बाइबिल की टीका लिखना आरंभ किया, पर वह पूरी न हो सकी। परन्तु नौकरी से पेंशन लेने के बाद जब उन्हें अवकाश और इतमीनान प्राप्त हुआ तो उन्होने इस विचार को अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'तफ़सील कुरान' के द्वारा पूरा किया। इसलाम के सिद्धान्तों और शिक्षाओं पर दार्शनिक दृष्टि से किये जानेवाले क्षेत्रों का बड़ी खोज और विवेचना के साथ जवाब दिय।

हिन्दू-मुसलमान दोनों ही अशिक्षा और अज्ञान के कारण शास्त्र- वचनों और धर्म के साधारण विधि-निषेधो को आँख मूंदकर मानते आते थे। उन वचनों की युक्ति-संगत व्याख्या तो वह क्या करते, उनके मन में कोई शंका ही न उठती थी; क्योकि शंका तो शिक्षा और जिज्ञासा का सुफल है। वह लोग अपने पुरखों के पदानुसरण करने में ही सन्तुष्ट थे। धर्म एक रूढ़ि मात्र बन गया था, मानो प्राण निकल गया हो, देह पड़ी हो। इसी कारण हिन्दू-मुसलमानों की आस्था अपने धर्म से हटने लगी थी। अंग्रेज़ी शिक्षा के आरंभिक युग में कितने ही शिक्षित हिन्दू ईसाई हो गये। अन्त को राजा राम मोहन राय को एक ऐसे सम्प्रदाय की स्थापना आवश्यक जान पड़ी जो पूर्णतया दार्शनिक सिद्धान्तों पर प्रतिष्ठित हो, और उसमें वह सब सुविधाएँ और स्वाधीनताएँ प्राप्त हैं, जो लोगे को ईसाई धर्म की ओर आकृष्ट किया करती थीं और इस नये सम्प्रदाय का नाम ब्रह्मसमाज रखा गया। इस सम्प्रदाय से जात-पाँत, छूत-छात, मूर्ति पूजा, तीर्थस्नान, श्राद्ध और वह सब विधि-विधान निकाल दिये गये जिन पर ईसाइयों के आक्षेप हुआ करते थे। यहाँ तक कि उपासनाविधि भी बदल दी गई। इसमें सन्देह नहीं कि इस सम्प्रदाय ने हिन्दुओं में ईसाइयत की बाढ़ को बहुत कुछ रोक दिया। इसके बहुत दिन