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सर सैयद अहमद खाँ
 


आर जितनी आवभगत हुई उसने उन्हें सदा के लिए अंग्रेजों के साथ प्रेमबंधन में बाँध दिया। करीब दो साल तक वहाँ के कालिजों के प्रबन्ध का बारीकी से अध्ययन करने बाद वह भारत लौटे और 'मदरसतुल उलूम के उद्घाटन की तैयारी करने लगे। इस उद्देश्य की सिद्धि और मुसलमानों में साहित्य और विद्या की सम्यक् रुचि उत्पन्न करने के विचार से उन्होंने तहज़ीबुल अख़लाक़” नामक मासिक पत्र निकाला। पर आलिमों की मंडली ने इस पत्र का विरोध आरम्भ किया और मुसलमान जनता को कालिज के उद्योग की ओर से भड़काने लगे। शायद कुछ लोगों ने सोचा हो कि यह इंगलैंड से अपना धर्म खोकर आये हैं। पर सर सैयद् ने हिम्मत न हारी और लगातार ५ साल के अथक उद्योग से १८७५ ई० में अलीगढ़ में मदरसतुल उलूम का उद्घाटध हुआ। इसमें संदेह नहीं कि इस संस्था की स्थापना से मुसलमाने का जितना अभ्युदय हुआ, और किसी तरह उतना न हो सकता था। आज मुसलिम विश्वविद्यालय मुसलमानों को जातीय स्मारक है और उसके विद्यार्थी हिन्दुस्तान के कोने-कोने में उसका झण्डा लिये घूम रहे हैं।

सैयद अहमद खाँ का खयाल हिन्दुओं की ओर से महज इस बात पर खराब हो गया कि १८६७ ई० में संयुक्त-प्रान्त में हिन्दुओं की ओर से यह कोशिश हुई कि नागरी इस सूबे की अदालती भाषा बना दी जाय। सैयद अहमद खाँ ने इसे हिन्दुओं की ज्यादती समझा, यद्यपि यह उद्योग केवल जनसाधारण के सुभीते की दृष्टि से आरम्भ किया गया था। स्पष्ट है कि जिस सूबे में हिंदुओं की आबादी ८० प्रतिशत से भी अधिक हो और उसमें अधिकतर लोग देहात के रहनेवाले, उर्दू से अपरिचित हों, वहाँ उर्दू की अदालती भाषा होनी खुला अन्याय है। मुट्ठी भर उर्दूदाँ लोगों के लाभ या सुभीते के लिए जनता के बहुत बड़े भाग को असुविधा और खर्च उठाने को बाध्य करना किसी प्रकार उचित नहीं और इस आंदोलन का यह उद्देश्य था कि उर्दू एकबारगी मिटा दी जाय। पर सर