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सर सैयद अहमद खाँ
 


कर रोने के सिवा और क्या धरा था। सर सैयई का यह विचार- परिवर्तन उस समय और भी स्पष्ट हो गया, जब वह विलायत गये। वहाँ उन्होने जो कुछ देखा उसमे इस नतीजे पर पहुँचे कि मुसलमानों का हित अग्रेज़ों से मेल रखने में है, और इस प्रकार उस कार्य प्रणाली की नींव पड़ी जो दिन-दिन अधिकाधिक भयावह रूप ग्रहण करती जा रही है। यहाँ तक कि आज उसने आपस के मेल-मिलाप को ही असंभव नहीं बना दिया है। देश के वायु-मण्डल को भी विषाक्त कर दिया है। देश दो परस्परविरोधी भाग में विभक्त हो गया है और उसका घातक प्रभाव आपस की मार-काट के रूप में प्रकट होता है। दोनों पक्ष एक तीसरी शक्ति का अधिकारारूढ़ रहन अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अनिवार्य आवश्यक समझते हैं। सर सैयद जैसे प्रभावशाली और प्रगतिशील पुरुष ने सयुक्त राष्ट्रीयता का पक्ष ग्रहण किया होता तो आज हिन्दुस्तान कहीं से कहीं पहुँचा होता। गन्दे गढे़ के कीटाणु ऐसे सख्तजान होते हैं कि एक बार जहाँ पुष्ट हुए कि फिर उनका नाश असंभव हो जाता है। अतः उस समय से अब तक मेल और एका के जितने यत्न किये गये सब विफल हुए, एकता और मेल की मंजिलें आज भी उतनी ही दूर है।

सर सैयद में आदमियों को पहचानने की स्वाभाविक शक्ति थी और जिस व्यक्ति के प्रति एक बार उनकी अच्छी धारणा हो गई, फिर उसके विरुद्ध कोई शिकायत न सुनते थे। मेहनत का यह हाल था कि अकेले जितना दिमागी काम कर सकते थे, उतना कई दिन मिलकर भी न कर सकते थे। बहुत ही हँसमुख, मुरौवतदार, उदारमना और सुवक्ता थे। उनकी वाणी में मोहिनी थी, सुनने वाले मंत्रमुग्ध- से हो जाते थे। उनका कहना था कि किसी महत्कार्य की सिद्धि के लिए विद्वत्ता की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी अनुभव और अवसर पहचानने की योग्यता की। विरोधी भी उनके सामने जाकर सहायक बन जाता। बुद्धि इतनी तीक्ष्ण थी कि उससे प्रभावित न होना असंभव था।