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कलम, तलवार और त्याग
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सर सैयद ने उर्दू भाषा की जो सेवा की, उसकी सराहना किन शब्दों में की जाय। यों कहना चाहिए कि उर्दू उन्हीं के आश्रय में पाली पोसी गई। उस समय तक उर्दू में शायरी का बाजार गर्म था। साहित्य पद्यरचना और कवि-चर्चा तक सीमित था। उसमें न गहराई थी, न ऊँचाई। कठिन विषयों की चर्चा और गंभीर भावों को व्यक्त करने की उसमें योग्यता न थी। ऐतिहासिक, आलोचनात्मक और शास्त्रीय विषयों पर उसे अधिकार न था। सर सैयद ने इन विषयों पर तहजीबुल अखलाक़” मैं जो निबंध लिखे, वह उर्दू के 'क्लासिक' स्थायी साहित्य हैं। उनके शब्द-शब्द से गंभीर अध्ययन, मानव-प्रकृति का सुक्ष्म परिचय और शास्त्रीय विषयों की पाण्डित्यपूर्ण आलोचन टपक रहा है। कहने का ढंग इतना सीधा-सादा है कि साधारण विद्या-बुद्धि का मनुष्य भी अनायास समझ ले। न पेचदार पद-विन्यास, न उलझे हुए वाक्य, ने 'क्लिष्ट शब्दावली। क्लिष्ट से क्लिष्ट भावों को इतनी सरलता से व्यक्त कर जाते हैं कि देखकर दंग रह जाय। यद्यपि ये निबंध सब-के-साथ उनके दिमाग से नहीं निकले हैं, बेकन, एडिसन और कई अन्य साहित्यकारों के भावों की छाया ग्रहण की गई है। पर कहने का ढंग उनका अपना है, और उसने निबंधों में नयापन पैदा कर दिया है। उनकी साहित्य सेवा के पुरस्कार-स्वरूप सरकार ने उन्हे 'सर' की उपाधि प्रदान कर अपनी गुणज्ञता का परिचय दिया।

आयु के अन्तिम भाग में लगातार बीमारियों के कारण सर सैयद बहुत कमजोर हो गये थे। पर उस अवस्था में जाति पर मिटा हुआ यह महापुरुष उसी उत्साह से जाति-सेवा में जुटा हुआ था। अन्त की १८९८ ई० वीं ७ वीं मार्च को महाप्रस्थान का संदेश आ गया और उसने अपने जीवन के अनेक अमर स्मृति चिन्ह-छोड़ इस नश्वर जगत् से कूच किया।