पृष्ठ:कलम, तलवार और त्याग.pdf/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कलम, तलवार और त्याग
१७८
 


उस समय मौलाना का उठना-बैठना शाही खानदान के युवकों के साथ था और सुहबत के असर ने कुछ रंग बदला तो उनके पिता ने उनको लखनऊ बुलवा लिया। यहाँ आकर मौलाना अब्दुलहई के शागिर्द मौलवी अब्दुल बारी से दर्शन की पुस्तकें पढ़ीं और मौलाना अब्दुलहई से भी कुछ अध्ययन किया। लखनऊ से देहली गये और मौलाना नज़ीद हुसेन साहब से हदीस की पुस्तके पढ़ी- तथा अब्दुलवहाब नज्दी की 'तौहीद' नामक पुस्तिका का उलथा किया। देहली से खासे तर्कवादी बनकर लखनऊ आ गये। यहाँ आपके पिता ने हकीम सादुद्दीन की बेटी से ब्याह तै कर रखा था, सो लखनऊ आते ही शादी हो गई। अब मौलाना अवध अखबार” में ३०) मासिक पर नौकर हो गये। कुछ अंग्रेजी भी सीख ली थी। शायरी का शौक़ पैदा हुआ। उस जमाने में मुंशी अमीर अहमद मीनाई की शायरी की बड़ी धूम थी, उन्हीं के शागिर्द हुए और 'शरर' (चिनगारी) उपनाम रखा।

अवध अखबार में 'शरर' के लेखों ने एक हलचल डाल दी। लोग उन्हें बड़े चाव से पढ़ते थे। इस नौकरी के सिलसिले में कई बार हैदराबाद जाने का संयोग हुआ और नवाब वक़ारुल उमरा तक पहुँच हो गई। मौलाना के पिता भी उस समय हैदराबाद में ही नौकर थे और बुढ़ौती में पेंशन ले ली थी। मौलाना यद्यपि 'अवध अखबार मे नौकर थे और लेख लिखा करते थे, फिर भी आपको मित्र-मण्डली में बैठने और गपशप का समय मिल जाता था। उनके एक दोस्त मौलवी अब्दुलबासित कुरसी के रहनेवाले बड़े बात के धनी, आत्मसम्मानी वीर और लकड़ी की कला में उस्ताद थे। उनके नाम से 'महशर' नामक मासिक पत्र निकाला जिसकी दफ्तर चौक बज़ाज़ा में क़ायम किया। वहीं मौलवी साहब की भी बैठक जमने लगी। मौलवी हिदायत रसूल उनके महल्ले के रहनेवाले और दोस्त थे, अकसर वह भी साथ रहते थे। लाला रोशनलाल खत्री थे जो, मुसलमान हो गये थे, वह भी उसी गुड्डे के यार थे। मौलवी मासूम-